पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/७५

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४—इसके अनंतर उनमें से बहुतेरे लोगों ने पूर्वोक्त मतों की आलोचना आरंभ की। उन्होंने सोचना शुरू किया कि इन तीनों मतों में से कौन ठीक है। अनेक नाट्यों के देखने से उन्हें अनुभव हुआ कि किसी नाट्य में सुंदर और सुसज्जित पात्र, किसी में उनके नयन-विमोहक अभिनय तथा किसी में मनोभावों का मनोहर विश्लेषण मनुष्य को मुग्ध करता है, और किसी में ये तीनों ही रद्दी होते हैं और कुछ मज़ा नहीं आता। तब उन्होंने यह निश्चय किया कि इन तीनों में से जहाँ जो चमत्कारी हो, जो कोई दर्शक के चित्त को आह्लादित कर सके, वहाँ उसे रस कहना चाहिए, और यदि चमत्कारी न हो तो तीनों में से किसी को भी रस कहना उचित नहीं। वे कहने लगे—"त्रिषु य एवं चमत्कारी स एव रसः, अन्यथा तु त्रयोऽपि न"। अर्थात् तीनों में से जो कोई चमत्कारी हो, वही रस है, और यदि चमत्कारी न हों तो तीनों ही रस नही कहला सकते। यह मत प्रस्तुत पुस्तक में आठवाँ है[१]


  1. पंडितराज इस मत के अनुसार भी भरत-सूत्र (विभावानुभावव्यभिचारिसयोगाद्रसनिष्पत्तिः) की व्याख्या करते हैं। यदि यह मत भरत-सूत्रों के बनने के अनंतर चला हो, तो मानना पड़ेगा कि इस समय जो 'नाट्यशास्त्र' प्राप्त होता है, वह भरत का बनाया हुआ नहीं है; क्योकि उसमें स्थायी भावों को रसरूप मानने का विस्तृत विवरण है और विभाव, अनुभाव अथवा व्यभिचारी भाव इन तीनों में से किसी एक को रस मानने का तो कहीं नाम भी नहीं है। और यदि यही नाट्यशास्त्र भरत-निर्मित है तो कहना पड़ेगा कि यह व्याख्या कल्पित है। पर, इस झगड़ें को ऐतिहासिकों पर छोड़ देने के सिवाय, इस समय, हमारे पास और कोई उपाय नहीं है।