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और अभिनयों से संबद्ध स्थायी भावों का आस्वादन करते हैं। अतः (उन्हें) नाट्य के 'रस' कहा जाता है।
इस तरह यह सिद्ध हुआ कि विभावादिक रसरूप नहीं, किंतु इनसे परिष्कृत स्थायीभाव रसरूप होते हैं[१]।
- ↑ यद्यपि इसके आगे हमें अग्निपुराण का रस-विवेचन लिखना चाहिए था, क्योकि भरत के अनंतर वही क्रम प्राप्त है; तथापि शुद्ध पुस्तक प्राप्त न होने के कारण हम उस पर विशेष विवेचन न कर सके। इस कारण, जो कुछ हमें उपलब्ध हुआ उस भाग को और उसके यथामति भावार्थ को हम टिप्पणी में दे रहे है। आशा है कि विद्वान् लोग इसका यथामति उपयोग करेंगे। उसमें लिखा है—
अक्षरं ब्रह्म परम सनातनमजं विभुम्।
वेदान्तेषु वदन्त्येकं चैतन्य ज्योतिरीश्वरम्॥
आनन्दः सहजस्तस्य व्यज्यते स कदाचन।
व्यक्तिः सा तस्य चैतन्यचमत्काररसाह्वया॥
आद्यस्तस्य विकारो य. सोऽहङ्कार इति स्मृतः।
ततोऽभिमानस्तत्रैदं समाप्तं भुवनत्रयम्॥
अभिमानाद्रतिः सा च परिपोषमुपेयुषी।
व्यभिचार्यादिसामान्याच्छृद्गार इति गीयते॥
तद्भेदाः कामभितरे हास्याथा अप्यनेकशः।
स्वस्वस्थायिविशेषोथ(स्थ) परिधो(पो)षस्वलक्षयाः॥
सत्त्वादिगुण्सन्तानाज्जायन्ते परमात्मनः।
रागाद्भवति शृङ्गारो रौद्रस्तैक्ष्ण्यात्प्रजायते॥
वीरोऽवष्टम्भजः सङ्कोचभूर्बीभत्स इष्यते।
शृङ्गाराज्जायते हासो रौद्रात्त करुणो रसः॥