पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/८४

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और हम उसका अर्थ समझ ले, तब भी हमें वही आनंद प्राप्त होना चाहिए, क्योंकि हमे शब्द के द्वारा रस का ज्ञान तो हो ही गया। पर यदि आप यह युक्ति बतलाएँ कि अनुभाव आदि के विज्ञान के बल से जो नट पर आरोप किया जाता है, उससे आनंदानुभव होता है, केवल शब्दादि के द्वारा ज्ञान से नहीं; तो यह भी उचित नही, क्योंकि चंदनादि के लेप आदि से जो आनंद आता है, उसमे हमे न अनुभाव की आवश्यकता होती है, न विभाव की। केवल स्पर्शेंद्रिय से, अथवा अन्य किसी इंद्रिय से, ज्ञान होते ही आनंद आने लगता है। दूसरे, इस बात में कोई प्रमाण भी नही है कि ऐसी कल्पना की जाय। रही भरत-सूत्र की बात, सो वह दूसरी तरह भी लगाया जा सकता है।

श्री शंकुक ने इस सूत्र का तात्पर्य यों समझाया—"विभावादि के द्वारा नट में अनुमान किया जानेवाला और जिस दुष्यंतादि का अनुकरण किया जा रहा है, उसमें रहनेवाला रति आदि स्थायी भाव रस है।" अर्थात् मुख्यतया रस दुष्यंतादि में ही रहता है; पर नट में उसका अनुमान कर लिया जाता है।

इस बात को स्पष्ट करने के लिये उन्होंने लिखा है कि जगत् में चार तरह के ज्ञान प्रसिद्ध हैं; सम्यग्ज्ञान, मिथ्याज्ञान, संशयज्ञान और सादृश्यज्ञान। राम के देखनेवाले को जो 'यह राम ही है', 'यही राम है' और 'यह राम है ही' ये तीनों