पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/८५

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ज्ञान होते हैं, वे सम्यग्ज्ञान कहलाते हैं। इनमें से पहले—अर्थात् 'यह राम ही है' इस ज्ञान में 'इसके राम न होने' का—अर्थात् 'यह राम नहीं है। इस ज्ञान का निवारण होता है। दूसरे—अर्थात् 'यही राम है' इस ज्ञान से 'इसके अतिरिक्त अन्य किसी के राम होने का—अर्थात् 'राम और कोई है' इस ज्ञान का—निवारण होता है। और तीसरे अर्थात् 'यह राम है ही' इस ज्ञान से 'सर्वथा राम न होने का—अर्थात् 'यह राम है ही नहीं' इस ज्ञान का निवारण होता है। इन्हीं तीनों निवारणों को संस्कृत में क्रमशः अयोगव्यवच्छेद, अन्ययोगव्यवच्छेद तथा अत्यंतायोगव्यवच्छेद कहते हैं। मिथ्याज्ञान उसे कहते हैं, जिसमे पहले से 'यह राम है' ऐसा जान पड़ने पर भी पीछे से जान पड़े कि 'यह राम नहीं है'। 'यह राम है अथवा नही' इस परस्पर विरोधी ज्ञान को संशयज्ञान कहा जाता है, और 'यह राम के समान है' इस समानता के ज्ञान को सादृश्यज्ञान कहते हैं।

इन चारों ज्ञानों के अतिरिक्त एक और भी ज्ञान होता है, जो कि जगत् में प्रसिद्ध नहीं है; जैसे किसी घोड़े का चित्र देखकर 'यह घोड़ा है' ऐसा ज्ञान। बस, इसी ज्ञान के द्वारा सामाजिक लोग नट को दुष्यंत आदि समझ लेते हैं, और फिर उन्हे सुंदर काव्य के अनुसंधान के बल से तथा शिक्षा और अभ्यास के द्वारा उत्पन्न की हुई नट की कार्यपटुता से, स्थायी भाव के कारण, कार्य और सहकारी, जिन्हे विभाव