पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/८६

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अनुभाव और व्यभिचारी भाव कहा जाता है, कृत्रिम होने पर भी स्वाभाविक प्रतीत होने लगते हैं। अर्थात् सामाजिकों को उनके बनावटीपन का बिलकुल खयाल नहीं रहता; और तब वे लोग नट में स्थायी भाव का अनुमान कर लेते हैं। बस, उस अनुमान का नाम ही रस का आस्वादन है; और वह आस्वादन सामाजिकों को होता है; अतः यह कहा जाता है कि रस सामाजिकों में मे रहता है।

पर, यहाँ एक शंका हो सकती है। वह यह कि किसी भी पदार्थ का प्रत्यक्ष होने पर ही आनंद होता है, अनुमान मात्र से नही; अन्यथा हम सुख का अनुमान करने पर भी सुखी क्यों नहीं हो जाते। इसका समाधान वे यों करते हैं कि रति आदि स्थायी भावों में कुछ ऐसी सुंदरता है कि उसके बल से वे हमे अत्यंत अभीष्ट अथवा परम सुखरूप प्रतीत होते हैं; अतः यह मानना पड़ता है कि वे अन्यान्य अनुमेय पदार्थों से विलक्षण हैं, उनमें यह नियम नहीं लगता। तात्पर्य यह कि स्थायी भावों की सुंदरता का सामाजिकों पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वे उनका अनुमान करने पर भी आनंदित हो उठते हैं और नट को प्रत्यक्ष देखने पर भी यह निश्चय नहीं कर सकते कि यह दुष्यंत नहीं है।

८—भरत-सूत्र के तृतीय व्याख्याकार आचार्य भट्टनायक को, जिनकी व्याख्या सांख्य-सिद्धांत के अनुसार मानी जाती है, यह बात भी न जँची। उन्होंने कहा—श्री शंकुक का यह