पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

[८६]


इसके अनंतर इस विषय में दो मत और उत्पन्न हुए हैं। उनमें से—

१०—नवीन विद्वानों का कथन है कि रस को आत्मानंद सहित तथा वासनारूप में विद्यमान स्थायी भावों के रूप में मानना ठीक नही; किंतु यों मानना चाहिए कि जब हमें काव्य सुनने अथवा नाट्य देखने से विभाव आदि का ज्ञान हो जाता है, तब हम व्यंजनावृत्ति के द्वारा, शकुंतला आदि के साथ दुष्यंत आदि के जो प्रेम आदि थे, उन्हें जान लेते हैं। उसके अनंतर सहृदयता के कारण हम उन सुने अथवा देखे हुए पदार्थों का बार बार अनुसंधान करते हैं। वही बार बार अनुसंधान, जिसे भावना कहा जाता है, एक प्रकार का दोष है। उसके प्रभाव से हमारा अंतःकरण अज्ञान से आच्छादित हो जाता है, और तब उस अज्ञानावृत अंतःकरण में, सीप में चाँदी की तरह, अनिर्वचनीय रति आदि स्थायी भाव उत्पन्न हो जाते हैं और उनका हमें आत्म-चैतन्य के द्वारा अनुभव होता है। बस, उन्हीं रति आदि का नाम रस है। यह मत प्रस्तुत पुस्तक में तीसरा है।

और—

११—दूसरे विद्वानों का यह कहना है कि न तो दुष्यंत आदि के रति आदि को समझने के लिये व्यंजनावृत्ति की आवश्यकता है और न अज्ञानावृत्त अंतःकरण में अनिर्वचनीय रति आदि की कल्पना की। किंतु यो मानना चाहिए कि