पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/९०

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हम नट की अथवा काव्य-पाठक की चेष्टा आदि के द्वारा शकुंतला आदि के साथ जो दुष्यंत आदि का प्रेम था, उसका अनुमान कर लेते हैं, और तब पूर्वोक्त भावनारूपी दोष से हम अपने को दुष्यंत आदि समझने लगते हैं। परिणाम यह होता है कि हमारे अंतःकरण में ऐसा भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि हम शकुंतला आदि से जो व्यक्ति प्रेम आदि रखता है, उससे अभिन्न हैं। बस, इसी भ्रम का नाम रस है। यह मत प्रस्तुत पुस्तक में चौथा है। ये हैं रस के विषय में ११ मत।

अंतिम दो मतों की अमान्यता का कारण

पर, इन अंतिम दोनों मतों का बिलकुल प्रचार नहीं हुआ। इसका कारण यह प्रतीत होता है कि एक तो सभी काव्य सुननेवालों अथवा नाटक देखने-वालों को रस का आस्वादन नही होता; अतः यह मानना ही पड़ता है कि जिनमें वासनारूप से रति आदि विद्यमान होते हैं, उन्हें ही रसानुभव होता है। अतएव लिखा गया है कि—

सवासनानां सभ्यानां रसस्यास्वादनं भवेत्।
निर्वासनास्तु रङ्गान्तःकाष्ठकुढ्याश्मसंनिभाः॥

अर्थात् (नाटकादि देखने पर भी) जो सभ्य वासनायुक्त होते हैं, अर्थात् जिनमें वासनारूप रति आदि भाव रहते हैं, उन्हें ही रस का आस्वादन होता है; और जिन लोगों में वह वासना नही होती, वे वो नाट्यशाला के अंतर्गत लकड़ी, दीवार