पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/९१

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और पत्थरों के समान हैं, यदि उन्हें कुछ मजा आवे तो इन्हें भी आ सकता है।

उन वासनारूप रति आदि को छोड़कर अनिर्वचनीय रति आदि की कल्पना निरर्थक है। दूसरे, रस को सीप की चाँदी की तरह मानना सहृदयों के हृदय के विरुद्ध भी है; क्योंकि रस की प्रतीति बाधित नहीं है। अर्थात् उसकी प्रतीति होने के अनंतर हमें यह बोध नहीं होता कि अब तक जिन रति आदि और आनंद की प्रतीति हो रही थी, वे कुछ हैं ही नहीं।

इसी तरह रस को भ्रमरूप मानना भी शास्त्र और अनुभव दोनों प्रमाणों से शून्य है; क्योंकि न तो अयथार्थ ज्ञान को किसी शास्त्र में ही आनंदरूप माना गया है और न अनुभव ही इस बात को स्वीकार करता है। सहृदयों के अनुभव से तो यह सिद्ध है कि रस का आनंद के साथ अभेद संबंध मानो चाहे भेद संबंध, पर वह उससे रहित है नहीं।

उपसंहार

अब हम पूर्वोक्त मतों का सिंहावलोकन करते हुए इस विषय को समाप्त करते हैं।

१—लोगों ने प्रारम्भिक दृश्य-काव्यों का अभिनय देखकर सबसे प्रथम यह निश्चय किया कि इन अभिनयों के देखने से हमे जो आनंद प्राप्त होता है, वह रति आदि भावो के