पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/९४

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रति आदि भावों के अनुभव से यह आनंद प्राप्त होता है, वे न नायक-नायिका आदि के होते हैं, न सामाजिकों के, वे तो बिलकुल साधारण होते हैं, उनके विषय में सामाजिकों को कुछ ज्ञान नहीं होता कि वे किसके हैं।

९—अभिनवगुप्त और मम्मट-भट्ट को यह बात भी न जँची। उन्होंने भट्टनायक का खंडन करते हुए कहा कि विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों के द्वारा एक अलौकिक क्रिया उत्पन्न होती है। उससे, अथवा यों कहिए कि विभावादिकों के आस्वादन के प्रभाव से ही, हमारे आत्मचैतन्य का आवरण—अज्ञान—दूर हो जाता है। तदनंतर यह होता है कि हमारे हृदय में, सांसारिक अनुभवों के कारण, वासना रूप से विद्यमान रति आदि का उस आत्मचैतन्य के द्वारा प्रकाश होता है और उस आनंदरूप आत्मचैतन्यसहित उन रति आदि भावों का यह आनंदानुभव है। अर्थात् यह अनुभव साधारण रूप से हुए रति आदि का नहीं, किंतु आत्मानंद सहित और सामाजिकों के हृदय में वासनारूप से विद्यमान रति आदि का है।

पर, पंडितराज को यह बात भी पसंद न आई। उन्होंने कहा कि और सब बात आपकी ठीक है; पर जब आपने यह स्वीकार कर लिया है कि इस अनुभव में रति आदि का और आत्मानंद का साथ है, तब उस आनंद को गौण और रति आदि को प्रधान मानना उचित नहीं। अतः यह मानना चाहिए, जो श्रुति-सिद्ध भी है, कि यह आनंद आत्मरूप ही है। हाँ,