पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/९९

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भी इच्छानुसार फेर-फार कर दिया है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि प्राचीनों ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के विचारों पर यथोचित विमर्श नहीं किया और जिस समय जिसे जो कुछ सूझ पड़ा, तदनुसार वे गुणों में अधिकता, न्यूनता अथवा लक्षण-भेद करते चले गए। पर इन सबने अधिकांश में गुणों का नामकरण भरत के अनुसार ही रखा है; अतः इन्हें दशगुणवादी अथवा भरत के अनुयायी कहा जा सकता है।

मतभेदों की निवृत्ति

बारहवी शताब्दी में काव्यप्रकाशकार महामति मम्मट को यह अराजकता खटकी। उन्होंने खूब विमर्श करके भामह का पक्ष लिया, और उन्हीं तीन गुणों में, उस समय में सर्वाधिकरूपेण प्रचलित, वामन के गुणों में से अधिकांश का समावेश कर दिया और शेष को काट-छाँटकर ठीक-ठाक कर दिया। यह काट-छाँट प्रस्तुत पुस्तक में आ चुकी है, सो आप उसे देख ही लेंगे। परिणाम यह हुआ कि अग्निपुराण का मत तो पहले से ही प्रचलित नहीं था, और भरत से लेकर भोज तक के सब गुण प्रायः वामन के मत में संगृहीत हो चुके थे, सो सबके सब उड़ गए और उन्हीं तीन गुणों का प्रचार रह गया। इसके बाद भी वाग्भट ने दंडी के मत से और पीयूषवर्ष ने भरत के मत से गुणों के लक्षणादि लिखे; पर वे काव्यप्रकाशकार की युक्तिपूर्ण विवेचना के सामने न टिक