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अन्तिम लक्षण : राष्ट्रीयता का भाव

इन सब अंगों के होते हुए भी एक बात ऐसी है जिसके अभाव से राष्ट्र-रूपी शरीर बिना आत्मा का कहना चाहिए। यह बात जन-समुदाय में इस विचार का होना है कि "हम एक हैं"। इसे राष्ट्रीयता का भाव कह सकते हैं। जन-समुदाय में इस भाव का जाग्रत रूप में होना एक-साथ सुख-दुःख उठाने से उत्पन्न होता है। जहाँ श्रीमान् से लेकर कङ्गाल तक का रक्त एक में मिल कर बहता है, जहाँ अवसर पड़ने पर एक ही रूखी रोटी का टुकड़ा अमीर और गरीब दोनों बाँट कर खाते हैं, जहाँ किसी एक ही पूर्वज का नाम लेने से विद्वान् और अनपढ़ दोनों के हृदय वेग से घड़कने लगते हैं वहाँ समझना चाहिये कि राष्ट्रीयता का भाव जीवित अवस्था में वर्तमान है।

राष्ट्रीयता का यह भाव चिरकाल तक तभी स्थायी रह सकता है जब प्रत्येक व्यक्ति को, उसकी योग्यता के अनुसार, राष्ट्रीय कार्यों के सम्पादन का समान रीति से अवसर मिलता रहे। आर्थिक स्थिति, विशेष धर्म का अवलम्बन तथा किसी विशेष जाति अथवा कुल में उत्पत्ति इस समानता में बाधक नहीं होनी चाहिये। यदि सेनापति अथवा मंत्री की योग्यता रखने वाला व्यक्ति इस कारण से इन स्थानों के लिये नहीं चुना जा सकता कि वह ज़मीदार या कुलीन नहीं है तो ऐसा राष्ट्र बहुत दिन नहीं ठहर सकता। राष्ट्र के परिपक्व हो जाने पर राष्ट्रीयता का रूप छोटी छोटी बातों में भी प्रकट होने लगता है। सब लोगों का खान-पान, रहन-सहन, कपड़े