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हिन्दी-राष्ट्र
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में अँग्रेज़ी से अवश्य सहायता मिली है, किन्तु यह ऐक्य कृत्रिम और अस्थायी है। महासभा की कार्य्यवाही में अँग्रेज़ी का स्थान हिन्दुस्तानी ले रही है। अँग्रेज़ी राज्य के उठ जाने पर अँग्रेज़ी का भारत में वही स्थान रह जायगा जो आज फ़ारसी का है।

१९२१ की जनसंख्या के अनुसार बत्तीस करोड़ भारतवासियों में ३५६ की मातृ-भाषा संस्कृत थी। निस्सन्देह इससे कहीं अधिक संख्या संस्कृत समझने वालों की होगी किन्तु तो भी संस्कृत के राष्ट्र-भाषा होने के सम्बन्ध में कुछ भी कहना व्यर्थ है। प्राचीन काल में भी सम्पूर्ण भारत की भाषा संस्कृत कभी नहीं रही है। गङ्गा की घाटी में एक समय संस्कृत कदाचित मातृभाषा थी, किन्तु यह स्वप्न की सी बात है। हिन्दुओं का प्राचीन धार्मिक साहित्य संस्कृत में है इस कारण इसका पठन-पाठन अवश्य अधिक होता रहेगा। भारतवर्ष के हिन्दुओं के लिए संस्कृत का वही स्थान है जो पारसियों के लिये जेंद, यहूदियों के लिये हेब्रू, बौद्धों के लिये पाली, ईसाइयों के लिये लैटिन तथा मुसलमानों के लिये अरबी का है। संस्कृत भारत के जन-समुदाय की भाषा नहीं है।

हिन्दुस्तानी का प्रचार धीरे धोरे बढ़ता जा रहा है। महासभा की कार्य्यवाही बहुत कुछ हिन्दुस्तानी में होने लगी है। सम्भव है भविष्य की भारत सरकार की राजभाषा हिन्दुस्तानी हो जावे किन्तु तो भी यह सम्पूर्ण भारत के लोगों की मातृभाषा के समान नहीं हो सकती। हिन्दुस्तानी का भारत में अधिक से अधिक वैसा ही स्थान हो सकेगा जैसा कि आज कल अंग्रेज़ी