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क्या भारत एक राष्ट्र है?
 

हुआ दिखलायी दे सकता हो, वहाँ व्यक्तिगत स्वार्थ अत्यन्त बढ़ा-चढ़ा मानना पड़ेगा। व्यक्तिगत स्वार्थ सभी में होता है। योरप के लोगों में भी यह है, किन्तु राष्ट्र का स्वार्थ वे सदा इसके ऊपर रखते हैं। मुसलमानों में भी यह है, किन्तु धर्म के स्वार्थ को वे इस के ऊपर स्थान देते हैं। परन्तु आज कल को भारतीय जनता का आदि तथा अन्त सब व्यक्तिगत स्वार्थ में ही है।

सामाजिक हानि-लाभ की एकता पर भी आजकल भारत के लोगों का ध्यान नहीं है। समाज का संगठन ही ऐसा है कि उस पर ध्यान नहीं दिया जा सकता है यह बात कुछ उदाहरणों से स्पष्ट हो जावेगी। मान लीजिये यदि वर्तमान अंग्रेज़ी सरकार ऐसा नियम बना दे कि ब्राह्मण जाति के लोगों को सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी, तो इस से अन्य जाति के भारतीयों की कोई हानि न होगी। वास्तव में उनका लाभ ही होगा, क्योंकि जो स्थान खाली होंगे, वे इन अन्य जाति वालों के हिस्से में पड़ेंगे। यदि इस सम्बन्ध में भारत में आन्दोलन हुआ, तो स्वाभाविक है कि केवल ब्राह्मण ही उसमें भाग लेंगे। हाँ, अपने इस स्वार्थ के कारण, कि आज तो ब्राह्मणों के सम्बन्ध में ऐसा नियम बना है कल को कहीं हम लोगों में से किसी जाति के सम्बन्ध में भी ऐसा नियम न बन जाय, यदि अन्य जाति के लोग कुछ सहानुभूति प्रकट करें तो यह दूसरी बात है। एक दूसरा उदाहरण लीजिए। मान लीजिए कि किसी सरकारी दफ्तर में अग्रवाल वैश्य हेड-क्लर्क है और किसी कुरमी की अर्ज़ी किसी क्लर्क की