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हिन्दी-राष्ट्र
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जगह के लिए आती है। इस अवस्था में हेड क्लर्क महोदय का यह प्रयत्न करना कि वह कुरमी उस स्थान पर न हो कुछ आश्चर्यजनक नहीं समझना चाहिए। उनकी विचारशैली कुछ निम्न प्रकार को होगी। 'एक दूसरा अग्रवाल ठिकाने लग जाता तो अच्छा था। अगर किसी अग्रवाल भाई का हम से भला न हुआ, तो हमारे यहाँ रहने से लाभ ही क्या है? फिर दूसरे अग्रवाल के आजाने से दफ्तर में उठने-बैठने तथा खाने-पीने का भी आराम हो जायगा। यदि यह अपने मोहल्ले में रहने को आ गया तो मेल का दूसरा घर हो जायगा, जो समय कुसमय काम आवेगा। आगे भी अपनी विरादरी वालों के बाल-बच्चों की तरक्की करने का सहारा मिलेगा। कुरमी के साथ न खुलकर उठ-बैठ सकते हैं, न खा-पी सकते हैं; न रंज[१] और ख़ुशी में सच्ची सहायता कर सकते हैं।' भारत के वर्तमान सामाजिक संगठन के अनुसार यह विचारशैली बिलकुल ठीक है। परन्तु विचारणीय बात तो यह है कि जिस देश में इस प्रकार की सहस्रों जातियाँ हों, वहां सामाजिक हानि-लाभ की एकता कैसे कही जा सकती है।

मध्य कालीन भारत में भी इस सामाजिक विभिन्नता के कारण देश में ऐक्य होने में सदा बाधा रही। यह विभिन्नता ही मुख्य कारण थी, जिस से निकट ऐतिहासिक काल में विदे-


  1. भारत की कुछ जातियों में ऐसा भी नियम है कि मृतक शरीर को दूसरी जाति के लोग नहीं छू सकते।