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वक्तव्य

इस पुस्तक का लिखना मैंने १९२२ में प्रारम्भ किया था और इसके प्रथम चार अध्याय उन्हीं दिनों जबलपुर की "श्री शारदा" में निकले थे। इन अध्यायों को दुहराकर तथा एक नया पांचवां अन्तिम अध्याय बढ़ा कर इस छोटी सी पुस्तक को हिन्दी-भाषा-भाषियों के संमुख विचारार्थ रख रहा हूं। "हिन्दी राष्ट्र" की इस मेरी कल्पना के संबंध में इस समय मतभेद हो सकता है किन्तु मेरे यह विचार बहुत वर्षों के अनुभव, मनन तथा अध्ययन के फल स्वरूप हैं, अतः मेरा दृढ़ विश्वास है कि इन्हें अपनाये बिना हिन्दी-भाषा-भाषियों का कल्याण संभव नहीं है। मुझे अत्यन्त हर्ष होगा यदि यह पुस्तक हिन्दी-भाषा-भाषी नेतागण, विद्वद्वर्ग, तथा संपादकमंडल का ध्यान इस अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न की ओर आकर्षित कर सके।

इन निबंधों को पुस्तकाकार प्रकाशित करने का निश्चय गतवर्ष उस समय किया गया था जब भारत के कुछ प्रान्तों की सीमाओं के निर्धारण की चर्चा बहुत ज़ोरों से उठी हुई थीं। किन्तु कुछ अनिवार्य कारणों से पुस्तक के प्रकाशन में बहुत विलम्ब हो गया। मैं अनुभव करता हूँ कि देश की वर्तमान परिस्थिति इस विषय पर गंभीरतापूर्वक विचार करने के लिये बहुत उपयुक्त नहीं है। परन्तु इस स्थायी समस्या पर हम हिन्दी-भाषा-भाषियों को आगे-