लगी। राजवंशों का भी स्थायी रूप नहीं रहा। इस अवस्था में अपनी रगों में पुराने राजाओं का रक्त रखने का गौरव करने वाले मनचले शक्तिशाली पुरुष अपने बाहुबल के आधार पर भारत में राज्यों को बनाने और बिगाड़ने का बीड़ा उठाने लगे। इस काल में इन व्यक्तिगत शासकों की इच्छा तथा शक्ति पर ही पड़ोस के राज्यों की सीमाओं की लकीरें अवलम्बित होती थीं। कैसी अस्वाभाविक बात थी। यह प्रारम्भिक-राजपूत-काल कहा जा सकता है। इस समय पड़ोस के राजा को नष्ट करके अपने राज्य में मिला लेना ही प्रत्येक राज्य का एक मात्र लक्ष्य होता था। घर में जब ऐसी भारी फूट हो तब बाहर वालों का आना स्वाभाविक ही है।
इसी समय अरब के मुसलमानों ने आक्रमण करना आरम्भ किया। घर में वैसे ही निरन्तर संग्राम हो रहा था, विदेशियों से देश की रक्षा कौन करे। राज्य के छिन जाने से, अपने विलास करने के स्वार्थ में बाधा पड़ने का भय देख ये राजा अन्त में कुछ सचेत हो गए। ये शक्तिशाली शासक इन आक्रमणकारियों से सचमुच सिंहों की ही तरह पृथक् पृथक् लड़े, किन्तु अल्प शक्ति रखने वाले साधारण मनुष्य भी एक एक कर के सिंहों के समुदाय को मार सकते हैं, फिर इन आक्रमणकारियों के पास तो अपने धर्मप्रचार के अन्धविश्वास तथा स्वर्णभूमि भारत को लूटने के स्वार्थ के रूप में दो अन्य प्रबल शक्तियां भी थीं जो इन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती थीं। गंगा की घाटी की असहाय