पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/३५

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इन्दोवरी-इन्दुज इन्दीवरी (सं० स्त्री०) इन्दीवरमस्त्यस्याः, अञ्च-! अमृत निकलता है। अमृतसे फिर चन्द्रकला पूर्ण डोष्। १ शतमूली, सतावर। नौलपम सदृश पुष्य हो जाती है। ( कालमाधव ) निकलनेसे शतमूलीका नाम यह पड़ा है। २ अज- इन्दुकलावटिका (सं० स्त्री०) वैद्यकोक्त औषध शृङ्गो, मेढ़ासौंगी। ३ इन्द्रचिर्भटी, कुंदुरु। ४ कदली विशेष, दवाकी एक गोली। शिलाजतु, लौह एवं वृक्ष, केला। स्वण समभाग डाल तुलसीके रसमें घोटे और रत्ती- इन्दीवार (सं० पु०) नौलपम, पास मानी कमल। रत्तीको गोली बना डाले। यह मसुरिका, विस्फोटक, इन्दु (सं० पु.) उनत्ति अमृतधारया भुव लिबा लोहितज्वर, सर्वप्रकार व्रण और शीतला रोगके लिये करोति, उन्द-उ । उन्हें रिचादः । उण् १।१३। १ चन्द्र, चांद।। विशेष उपकारी होती है। "गसति तव मुखेन्दु पूर्णचन्द्र विहाय ।" (सङ्गारतिलक) २ मृग-इन्दुकलिका (सं० स्त्री०) इन्दुरिव शुभ्रा कलिका शिरा नक्षत्र । इस नक्षत्र का देवता चन्द्र है। ३ एक यस्याः, बहुव्री०। १ केतको वृक्ष, केवड़े का पेड़। संख्या, एकायो। ४ कर्पू काफ। २ खेत केतकी। इन्दुक (सं० पु.) इन्दु स्वार्थ क। अश्मन्तक वृक्ष । इन्दुकान्त (सं० पु.) इन्दुः कान्त: मनोजः यस्य, इसके तन्तुसे ब्राह्मण अपनी मौली-मेखला बनाते हैं। बहुव्री । चन्द्रकान्त मणि, हजर-उल-कमर, चन्दर- इन्दुकक्षा (सं० स्त्री०) इन्दोश्चन्द्रस्य कक्षा। राशि- गांठ । २ चन्द्रकला। चक्रस्थ चन्द्रमण्डल । चन्द्रकक्षाका परिमाण ३२४००० | इन्दुकान्ता (सं० स्त्री०) इन्दुः कान्तः पतिः यस्याः, योजन है। चन्द्र देखो। बहुव्री० । १ रात्रि, रात। इन्दुः कान्तइव प्रकाशक- इन्दुकमल (सं० लो०) इन्दुरिव शुक्ल कमलम्, त्वात् यस्याः। २ केतकी, केवड़ा। ३ चन्द्रप्रिया, उप० कर्मधा० । शुक्लकमल, कुमुद, बघोला, कोका रोहिणी। बेली। इन्दुखण्डा (सं० खो०) कर्कटशृङ्खो, ककड़ासोंगी। इन्दुकर (सं० पु०) चन्द्रकिरण, चांदनी। इन्दुचन्दन ( स० क्लो०) हरिचन्दन।। इन्दुकला (सं० स्त्री०) इन्दोः कला अंशः। चन्द्र- इन्दुज (सं • पु० ) इन्दोः जायते, इन्दु-जन-ड । ताराके रेखा, चांदका सोलहवां हिस्सा। इन्दुको सोलह गर्भसे चन्द्र कलंक उत्पादित बुधग्रह, दवीर-फुलक । कला यह हैं,-१ पूषा, २ यशा ३ सुमनसा, ४ रति, चन्द्रने राजसूययन करनेपर विवेकशून्य बन वृहस्पति- ५ प्राप्ति, कृति, ७ ऋद्धि, ८ सौम्या, 2 मरीचि, को स्त्री ताराको हरण किया था। देवतावोंके यह १० अंशमालिनी, ११ अङ्गिरा, १२ शशिनी, १३ छाया, बात बतानेपर ब्रह्माने स्वयं ताराको ले जाकर वृह- १४ सम्पर्णमण्डला, १५ तुष्टि और १६ अमृता। स्पतिके हाथ सौंपा। वृहस्पतिने ताराको गर्भवती चन्द्रको प्रथम कला अग्नि, द्वितीय सूर्य, टतोय | देख कहा था, हमारे घरमें रहकर तुम इस गर्भको विश्वे देवगण, चतुर्थ वरुण, पञ्चम वषट्कार, षष्ठ इन्द्र, कभी रख न सकोगी। ताराने स्वामोके वाक्यानुसार सप्तम स्वर्गीय ऋषि, अष्टम विष्णु, नवम यम, दशम | तत्क्षण गर्भस्थ पुत्रको निकाल जलस्तम्भपर फेंक वायु, एकादश उषा, द्वादश अग्निष्वात्तादि पिटगण, दिया। सद्यप्रसूत कुमार शरस्तम्भपर पड़ते ही ज्वलन्त त्रयोदश कुवेर, चतुर्दश शिव और पञ्चदश ब्रह्मा पी। अग्निके समान चमकने लगा था। उसका रूप देख जाते हैं। किन्तु षोड़स कला सर्वदा ही जलमें प्रविष्ट देवतावोंने भी हार मानी। ब्रह्माने तारासे पूछा, रहती है। ओषधिमें परिणत होनेसे अमावस्याको कि वह पुत्र किसका था-चन्द्र या वृहस्पतिका। चन्द्र देख नहीं पड़ता। फिर उक्त ओषधि गोचर | ताराने अतिकष्टसे शिरः झुकाकर कहा, कि पुत्र लेती हैं। इससे दुग्ध और वृत उपजता है। उसी चन्द्रका रहा। उस समय चन्द्रने पुत्रको गोदमें टुग्धघृतादिसे ब्राह्मण यन्न करते हैं। यन्नके फलसे । ले बुध नाम रखा था। (हरिवंश २६ अ०)