पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/४३७

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४३६ ऋतु “पञ्चपादं पितरं हादशाकृति दिव पाहु: पर अधेपुरीषिण'। अर्थ | रसोंको ओषधि विशेष रूपसे उत्पन्न होती हैं। मे अन्ध पर विचच्चाएं सन्नचक्र घलर आहुरर्पित।" (ऋक् १।१६४।१२) प्राणीमात्र क्रमशः बलवान् बनने लगते हैं। उत्त- पञ्चपाद और हादश प्राकृतिविशिष्ट आदित्य रायण कालमें शिशिर, वसन्त और ग्रीष्मका आगमन स्वर्गके परम अधपर रहते, जिन्हें कुछ लोग पुरोषी होता है। कारण सूर्य तेज:पुल रहा करते हैं। कहते हैं। जब अपर अपर प्रात, सब वह किसी इसीसे कर, कषाय और तिक्त तीन रसोंका बल बढ़ता किसीके मुंह छह बरयुक्ता सप्त चक्र विशिष्ट रथमें और प्राणियोंका पराक्रम क्रमशः घटता है। अर्पित कहे जाते हैं। आयुर्वेद के मतान्तरसे-वर्षा, शरत, हेमन्त, वसन्त.. यहां पञ्चपादका अर्थ पञ्चत है। सायणके मतसे ग्रीष्म और प्राहट छह ऋतु हैं। भाद्र-आखिन वर्षा. हमन्त और शिशिरको एक ही मान पञ्च ऋतु कहे हैं। कार्तिक-अग्रहायण शरत्, पौष-माव हेमन्त, फाल्गुन- ऋक संहितामें इसका भी आभास मिलता, कि चैत्र-वसन्त, वैशाख-ज्येष्ठ ग्रीष्म और आषाढ़-श्रावण पृथिवीकक्षको गति के अनुसार ऋतु बदलता है। प्रावट का समय होता है। छह ऋतुके मध्य वर्षाकालमें न तन ओषधि उप- "पचार चक्रे परिवर्त माने तस्मिन्ना तस्थभु वनानि विश्वा । जती, इसीसे अल्पवीय, जल क्ल दयुक्त और मृत्तिका- तस्य नाक्षतप्यते भूरिभारः सनादव न शौर्यते सनाभिः॥" मलपूर्ण रहती हैं। इस ऋतुमें आकाश मेघाच्छन्न (ऋक् १११६४।१३) होता है। भूमि और प्राणिगणका देह दोनों जलसे परिवर्तनशील पञ्च अरयुक्त चक्रमें निखिल भुवन आई पड़ जाते हैं। आदेहमें शीतल वायुके संयो- लोन है। उसका अक्ष अधिकतर भार वहनसे भी गसे अग्निमान्दा पाता है। सुतरां नूतन अल्पवीर्य क्लान्त नहीं होता। उसकी नाभि चिरकाल समान ओषधि खाने या अपरिष्क त जल पीने पर परिपाकके रहती और कभी शीण नहीं पड़ती। समय अम्लरस बढ़ता और गला जलने लगता है। सुश्रुतने लिखा है- पित्तका सञ्चय होनेसे विदाह अजीणं घेर लेता है। "संवत्सरात्मनो भगवानादित्यो गतिविशेषे शाचिनिमेषकाष्ठाकला- शरत्कालमें आकाश मेघशून्य रहने और कदम मुहर्ताहीरावपक्षमास्त्वं यनस'वत्सर युगप्रविभागं करोति।" (स व० ३५०) शुष्क पड़नसे सञ्चित पित्त सूर्यकिरण द्वारा समस्त ___ भगवान् सूर्य गतिविशेष द्वारा कालके देहको शरीर में फैल पैत्तिक व्याधि उपजाता है। हेमन्त अक्षि, निमेष, काठा, कला, मुहूर्त, अहोरात्र, | कालमें ओषधि परिपक्क और बलवान होती हैं। पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर और युग अंशमें जल निश्चल रहता है। सूर्य का तेज क्रमशः घटने बांटते हैं। लगता है। इसीसे हिम और शीतल वायु द्वारा सुश्रुतके मतसे-शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, प्राणिगणका देह जड़ीभूत पड़ जाता है। फिर शरत् और हेमन्त छह ऋतु होते हैं। हादश मासके स्निग्ध, शीतल, गुरुपाक एवं पिच्छिल ओषधि समूह मध्य माघ-फाल्गुन शिशिर, चैत्र-वैशाख वसन्त, ज्येष्ठ- और जल द्वारा शरीर में श्लेष्मा का सञ्चय होता है। आषाद ग्रीष्म, श्रावण-भाट वर्षा, आश्विन-कार्तिक वसन्तकालमें जीवका शरीर अल्प जड़ीभूत रहता शरत् और अग्रहायण-पौष हेमन्त है। शीत, उष्ण है। पूर्व सञ्चित श्लेष्मा सूर्यकिरण द्वारा सर्वशरीरमें और वर्षा आदि ऋतुका लक्षण है। काल चन्द्रसूर्य फैल जानेसे अपना रोग बढ़ा देता है। द्वारा विभक्त होनेसे दो अयन पड़ते हैं, दक्षिणायन ग्रीष्मकालमें जल लघु पड़ जाता है। ओषधि और उत्तरायण। दक्षिणायनमें वर्षा, शरत् और नीरस, रुक्ष और लघु लगती है। सूर्यके किरणसे हेमन्त तीन ऋतु लगते हैं। कारण चन्द्र तेजःपुञ्ज | प्राणिगणका शरीर भी शुष्कप्राय देख पड़ता है। ऐसे हो जाते हैं। इसीसे अन्न, लवय और मधुर तीन पोषधिभक्षण और जलपानपर नौरस, रुचता तथा