पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/६०४

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कद्दाल-कहाली कोलास्थि ( Trapezoid), स्थलास्थि (Osmagnum)| एतद्भिव शरीरमें दूसरे भी प्रति कोमल उपासि और वड़िशास्थि ( Unciform) कहाते हैं। वा तरुणास्थि विद्यमान हैं। शरीरके दृढ़ एवं सबल अङ्गलिके सकल अस्थिको अङ्ग त्यस्थि ( Phalan पङ्ग प्रख स्व द्वारा निर्मित हैं। मणिश्च पोर गुण ges) कहते हैं। प्रत्येक अङ्गठमें दो और अपर प्रभृति स्थानों में अख'स्व वा शुद्रास्थि होते हैं। पङ्ग लिमें तोन अस्थि रहते हैं। इनमें प्रत्येक पर ममम्त अस्थि अन्तर्भाग और वहिर्भागमें मिलने पर्व एवं करतबके अखिसे पृथक पड़ने पर स्वाधीन, वेष्ठित हैं। किन्तु इनके सन्धिस्थानोंपर झिनोका परदा भावसे बढ़ सकता है। देख नहीं पड़ता। सन्धि स्थान सूक्ष्म उपास्थि मे वेष्ठित अधाशाखामें जर्वस्थि ( Femur ), जानुफलकास्थि रहता है। पस्थिका गर्भ पोनवण ने इविशेषसे पूर्ण (Patella), जङ्घास्थि (Tibia), नलकास्थि (Fibula), है। उसीको मज्जा कहते हैं। पस्थि-समूहमें कहो गुलफ ( Tarsus ), प्रपद ( Metatarsus ) और पद गतवत् खात और कहीं उच्च भाव रहता है। तल (Toes) होता है। देहके अस्थिमय गते (Acelabulum) कपासाखि ___ अङ्गक अस्थियों में अस्थि सबसे बड़ा है। इसका द्वारा निर्मित हैं। शिरोभाग श्रोणिफलकास्थिसे पृथक् पड़ जाता है। कङ्कालकेतु (सं० पु.) एक दानव । जहास्थि पदके सम्मुख और अन्तर्भागमें रहता है। कङ्कालभैरवतन्त्र (सलो .) तन्त्र यास्त्रवियेत्र । इसका शिरोभाग अन्य भागसे बड़ा होता है। ऊपर कङ्काल मालिनी (स. स्त्री०) कहालमासिन-डोर। बादामी रंग झलकता है। दो बादामो तहोंपर जब- काली। स्थिको गांठ (Condylus ) पड़ती है। नल- कङ्कालमाली (सं० पु. ) कसालानां माता प्रस्थ स्ति, कास्थि जङ्गास्थि के ठीक पाखं पौर पदके वहिर्भागपर कङ्काल माला-इनि। ब्रोमादिभाय । पा महदेवा स्थापित है। यह देखने में दीर्घ, क्षीण, अधिकांश कालय (स'• पु.) कङ्कालं याति, कहा-या-क। तीन पाख यता और शेष दिक को वर्धित रहता है। देह, शरीर, जिस्म। जानुफलकास्थि (Patella Knee-pan ) प्रायः वि. कङ्काल गर (संपु०) वापविशेष, इडडीका तोर। कोणाकार देख पड़ता है। इसका अधोभाग बहुत कालास्त्र ( ला) अन्नविष, एक इधियार। ढाल, अग्रभाग कुछ टेढ़ा तथा देखने में तन्तु-जैसा और यह हाडोका बनता था। पश्चादाम अधिक कोमल एवं मध्यपर एक आलि कङ्कालिनी ( सं० स्त्रो• ) १ महाकालो मूर्ति । द्वारा दो भागमें विभक्त है। गुल्फ ७ अस्थिसे निर्मित कालो देखा। २ ककगा, झगड़ा करनेवालो। है। यथा-१ गुल्फास्थि (Astragalus), २ पार्णास्थि कङ्काली (स• स्त्रो०) काल-डीम् । १ महांकाजो- (Os calcis ), ३ नावास्थि ( Navicular ), मूर्ति। कमर्दा राज्य के अन्तर्गत बारिया ग्रामसे . ४ घनास्थि ( Cuboid ), ५ अभ्यन्तर कोणास्थि मोल उत्तरपश्चिम एक अति प्राचीन दुर्ग प्रवस्थित (Internal Cuneiform), ६ मध्यकोणास्थि (Middle है। दुर्ग को अवस्था अति शोचनीय है। चारो दिक Cuneiform) और ७ वाधकोणास्थि (External भूमिसात हैं। यतसामान्य अंग प्रवशिष्ट देख पडला cureiform)। है। इसी दुर्ग में कङ्काली देवीको प्रस्तरमूर्ति प्रति प्रपद एवं पदाङ्गुलिके अस्थिको गठनप्रणालो प्रायः ष्ठित है। देवीके १८ हाथ हैं। उनमें नरकपास करम तथा अङ्गलिके अस्थि-जैसी ही रहती है। धनुर्वाणादि अस्त्र-शस्त्र विराज रहे हैं। देवोके निकट पदालिके परिख दीर्थ, वृहत्, छष और कराङ्गलिके | त्रिशूनधारी शिवको मूर्ति खड़ी है। उन्होंके निकट अखिसे सघन होते हैं। पादके दोनों वृहाङ्गुष्ठोंको | गणेशमूर्ति है। यह दुर्ग और काली देवोको मूर्ति छोड़ दूसरे छोटे पड़ते हैं। | बहु प्राचीन है। दोनों प्रायः ८ सौ वर्षके होंगे।