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का उल्लेख नहीं मिलता। हिंदी के सब से पुराने ( आदम साहब के लिखे हुए एक छोटे से ) व्याकरण में संज्ञा का एक और भेद ‘क्रियावाचक' के नाम से दिया गया है। हमने क्रियावाचक संज्ञा को भाववाचक संज्ञा के अंतर्गत माना है, क्योंकि भाववाचक संज्ञा के लक्षण में कियवाचक संज्ञा भी आ जाती है। भाषा-भास्कर में यह संज्ञा "क्रिया को साधारण रूप" वा "क्रियार्थक संज्ञा" कही गई है। उसमें यह भी लिखा है कि यह धातु से बनती है ।(अंक १८८-अं.)। यह भेद घ्युत्पत्ति के अनुसार है और यदि इस प्रकार एक ही समय एक से अधिक आधारों पर वर्गीकरण किया जाय तो कई संकीर्ण विभाग हो जायँगे ।

यहाँ अर्थ मुख्य विचार यह है कि जब संज्ञा के ऊपर कहे हुए तीन भेद संस्कृत में नहीं हैं तब उन्हें हिंदी में मानने की क्या आवश्यकता है ? यथार्थ में अर्थ के अनुसार शब्दों के भेद करना न्यायशास्त्र का काम है, इसलिए व्याकरण में इन भेदों को केवल उनकी आवश्यकता होने पर मानना चाहिये । हिंदी में इन भेदों का काम रूपातर और व्युत्पत्ति में पड़ता है; इसलिए ये भेद सस्कृत में न होने पर भी हिंदी में आवश्यक है। संस्कृत में भी परोक्ष रूप से भाववाचक संज्ञा मानी गई है। केशवराम-भट्ट-कृत “हिंदी-व्याकरण" मैं सज्ञा के भेदों मैं ( संस्कृत की चाल पर ) भाववाचक संज्ञा का नाम नहीं है, पर लिंग-निर्णय में यह नाम आया है। जब व्याकरण में सज्ञा के इस भेद का काम पढता है तब इसको स्वीकार करने में क्या हानि है ?

किसी किसी हिंदी व्याकरण में सज्ञा के समुदायवाचक और द्रव्यवाचक नाम के और दो भेद माने गये हैं, पर अँगरेजी के समान हिंदी में इनकी विशेष आवश्यकता नहीं पडती । इसके सिवा समुदायवाचक का समावेश व्यक्ति-वाचक तथा जातिवाचक में और द्रव्यवाचक की समावेश जातिवाचक में हो जाता है।

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*जो पदार्थ केवल ढेर के रूप में तौला या नापा जाता है उसे द्रव्य कहते हैं; जैसे अनाज, घी, शक्कर, सोना, इत्यादि ।