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दूसरा अध्याय।

सर्वनाम।

११३—सर्वनाम उस विकारी शब्द को कहते हैं जो पूर्वापर संबंध से किसी भी संज्ञा के बदले उपयोग में आता है; मैं (बोलने-वाला), तू (सुननेवाला ), यह (निकटवर्ती वस्तु), वह (दूरवर्ती वस्तु), इत्यादि।

[टी°—हिंदी के प्रायः सभी वैयाकरण सर्वनाम को संज्ञा का एक भेद मानते हैं। संस्कृत में "सर्व" (प्रातिपदिक) के समान जिन नामों (संज्ञाओं) का रूपांतर होता है उनका एक अलग वर्ग मानकर उसका नाम 'सर्वनाम' रक्खा गया है। 'सर्वनाम' शब्द एक और अर्थ में भी आता है। वह यह है कि सर्व (सब) नामों (सज्ञाओं) के बदले में जो शब्द आता है उसे सर्वनाम कहते हैं। हिदी मे 'सर्वनाम' शब्द से यही (पिछला) अर्थ लिया जाता है और इसीके अनुसार वैयाकरण सर्वनाम को संज्ञा का एक भेद मानते हैं। यथार्थ में सर्वनाम एक प्रकार का नाम अर्थात् संज्ञा ही है। जिस प्रकार संज्ञाओं के उपभेद व्यक्तिवाचक, जातिवाचक और भाववाचक हैं उसी प्रकार सर्वनाम भी एक उपभेद हो सकता है। पर सर्वनाम में एक विशेष विलक्षणता है जो संज्ञा में नहीं पाई जाती। संज्ञा से सदा उसी वस्तु का बोध होता है जिसका वह (संज्ञा) नाम है; परंतु सर्वनाम से, पूर्वापर संबंध के अनुसार, किसी भी वस्तु का बोध हो सकता है। 'लड़का' शब्द से लड़के ही का बोध होता है, घर, सड़क, आदि का बोध नहीं हो सकता, परंतु 'वह' कहने से पूर्वापर संबंध के अनुसार, लड़का, घर, सड़क, हाथी, घोडा, आदि किसी भी वस्तु का बोध हो सकता है। "मैं" बोलनेवाले के नाम के बदले आता है। इसलिए जब बोलनेवाला मोहन है तब "मैं" का अर्थ मोहन है; परंतु जब बोलनेवाला खरहा है (जैसा बहुधा कथा-कहानियों में होता है) तब "मैं" का अर्थ खरहा होता है। सर्वनाम की इसी विलक्षणता के कारण उसे हिंदी में एक अलग शब्द-भेद मानते हैं "भाषातत्वदीपिका" में भी सर्वनाम संज्ञा से भिन्न माना गया है; परंतु उसमें सर्वनाम का जो लक्षण दिया गया है वह निर्दोष नहीं है। "नाम को एक बार कहकर फिर उसकी जगह जो शब्द आता है उसे