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के लिए क्रमशः व्यक्ति और प्रतिनिधि के अर्थ में आते हैं; जैसे, "कुंभलिक- मुझे क्या दोष है, यह तो हमारा कुल-धर्म है।” (शकु० )। "मैं चाहता हूँ कि आगे को ऐसी सूरत न हो और हम सब एक-चित्त होकर रहें।” ( परी० ) ।

(ऊ) स्त्री अपने ही लिए 'हम' का उपयोग बहुत कम करती है। (अं-११७ इ ) । स्त्रीलिंग “हम” के साथ कभी कभी पुलिंग क्रिया आती है, जैसे, "गौतमी---लो अब निधड़क बात- चीत करो, हम जाते हैं।” (शकु० )। 'रानी-महाराज, अब हम महल में जाते हैं।' ( कर्पूर० )।

(ऋ) साधु-संत अपने लिए 'मैं' वा 'हम' का प्रयोग न करके बहुधा “अपने राम” बोलते हैं; जैसे—अब अपने राम जानेवाले हैं।

(ऋ) 'हम' से वहुत्व का बोध कराने के लिए उसके साथ बहुधा ‘लोग' शब्द लगा देते हैं, जैसे, ह०–आर्य, हमलोग तो क्षत्रिय हैं, हम दो बात कहाँ से जाने । ( सत्य० )।

११९---तू-मध्यमपुरुष (एकवचन ) । ( ग्राम्य-तैं ) । “तु' शब्द से निरादर वा हलकापन प्रकट होता है, इसलिए हिंदी में बहुधा एक व्यक्ति के लिए भी “तुम” का प्रयोग करते हैं। “तू” का प्रयोग प्रायः नीचे लिखे अर्थों में होता है---

(अ) देवता के लिए, जैसे, “देव, तू दयालु, दीन हौं, तू दानि, हौं भिखारी ।" ( विनय )। दीनबंधु, (तू) मुझ डूबते हुए को बचा । (गुटका० )।

(आ)छोटे लड़के अथवा चेले के लिए ( प्यार मे ), जैसे,—एक तप-स्विनी-अरे हठीले बालक, तू इस बन के पशुओं को क्यों सताता है ?” ( शकु० )।" उ०—तो चल, आगे आगे भीड़ हटाता चल ।” ( सत्य०)। .

(इ) परम मित्र के लिए, जैसे, "अनसूया-सखी तू क्या कहती