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आप" का अर्थ “मन सं" वा "स्वभाव से" होता है और इनका प्रयोग क्रियाविशेषण-वाक्यांशो के समान होता है, जैसे, "ये मानवी यंत्र आपही आप घर बनाने लगे ।" (स्वा०) । "ई०--(आपही आप) नारदजी सारी पृथ्वी पर इधर उधर फिरा करते हैं ।" (सत्य०) । “मेरा दिल आपसे आप उमड़ा आता है ।" (परी॰) ।

१२६--जिस सर्वनाम से वक्ता के पास अथवा दूर की किसी वस्तु का बोध होता है उसे निश्चयवाचक सर्वनाम कहते हैं। निश्चयवाचक सर्वनाम तीन हैं—यह, वह, सेा ।

१२७---यह– एकवचन । इसका प्रयोग नीचे लिखे स्थानों में होता है--

(अ) पास की किसी वस्तु के विषय में बोलने के लिए, जैसे, “यह किसका पराक्रमी बालक है ?" (शकु०) । “यह कोई नया नियम नही है ।" (स्वा०) ।

(आ) पहले कही हुई सज्ञा या सज्ञा-वाक्यांश के बदले ; जैसे, "माधवीलता तो मेरी बहिन है, इसे क्यो न सींचती !" (शकु०) । “भला, सत्य धर्म पालना क्या हँसी खेल है। यह आप ऐसे महात्माओं ही का काम है।” (सत्य॰) ।

( इ ) पहले कहे हुए वाक्य के स्थान मे; जैसे, "सिंह को मार मणि ले कोई जतु एक अति डरावनी औंड़ी गुफा में गया , यह हम सब अपनी आँखों देख आये ।" (प्रेम०) । “मुझको आपके कहने का कभी कुछ रंज नहीं होता। इसके सिवाय मुझे इस अवसर पर आपकी कुछ सेवा करनी चाहिये थी ।" (परी०) ।

( इ ) पीछे आनेवाले वाक्य के स्थान में, जैसे, "उन्होंने अब यह चाहा कि अधिकारियों को प्रजा ही नियत किया करे ।"