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(स्वा०) । “मुझे इससे बड़ा आनंद है कि भारतेंदु जी की सब से पहले छेड़ी हुई यह पुस्तक आज पूरी हो गई ।" (रत्ना०) ।

[सू०-ऊपर के दूसरे वाक्य से जो ‘यह' शब्द आया है, वह यहां सर्व-नाम नहीं, किंतु विशेषण है; क्योंकि वह ‘पुस्तक' संज्ञा की विशेषता बताता है । सर्वनामों के विशेषणीभूत प्रयोगों का विचार आगे ( तीसरे अध्याय में) किया जायगा । ]

( उ ) कभी कभी संज्ञा या संज्ञा-वाक्यांश कहकर तुरंत ही उसके बदले निश्चय के अर्थ में "यह" का प्रयोग होता है, जैसे, “राम, यह व्यक्तिवाचक संज्ञा है ।” “अधिकार पाकर कष्ट देना, यह बड़ो को शोभा नहीं देता ।" (सत्य॰) । “शास्त्रो की बात में कविता का दखल समझना, यह भी धर्म के विरुद्ध है ।" (इति०) ।

[ सू०--इस प्रकार की रचना का प्रचार अब घट रहा है ।]

(ऊ) कभी कभी "यह" क्रियाविशेषण के समान आता है और तब उस का अर्थ “अभी" वा "अब" होता है जैसे, ‘लीजिये महाराज,यह मैं चला ।” ( मुद्रा० ) । “यह तो आप मुझको लज्जित करते हैं ।" ( परी० )।

(ऋ) आदर और बहुत्व के लिए, ( अं०-१२८) ।

१२८-ये-बहुवचन ।

‘ये 'यह' का बहुवचन है। कोई कोई लेखक बहुवचन मे भी 'यह' लिखते हैं । (अं०-१२२)। “ये" (और कभी कभी "यह") का प्रयोग बहुत्व और आदर के लिए होता है, जैसे, “यह भी तो उसी का गुण गाते हैं ।" (सत्य॰) । “यह तेरे तप के फल कदापि नहीं; इनको तो इस पेड़ पर तेरे अहंकार ने लगाया है ।" ( गुटका० ) । “ये वेही हैं जिनसे इंद्र और बावन-अवतार उत्पन्न हुए !" ( शकु०)। "ये हमारे यहाँ भेज दो । ( परी०)।