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(अ) “ये" के बदले आदर के लिए ‘आप’ का प्रयोग केवल बोलने में होता है और इसके लिए आदर-पात्र की और हाथ बढ़ा-कर सकेत करते हैं।

१२९-वह ( एकवचन ), वें ( बहुवचन ) ।

हिंदी में कोई विशेप अन्यपुरुष सर्वनाम नहीं है। उसके बदले दूरवर्ती निश्चयवाचक "वह" आता है। इस सर्वनाम के प्रयोग अन्यपुरुष के विवेचन मे बता दिये गये हैं। (अं०-१२१-१२२) । इससे दूर की वस्तु का बोध होता है।

(अ) “यह" और “ये" तथा “वह” और “वे" के प्रयोग में बहुधा स्थिरता नहीं पाई जाती । एक बार आदर वा बहुत्व के लिए किसी एक शब्द का प्रयोग करके लेखक लोग फिर उसी अर्थ मे उस शब्द का दूसरा रूप लाते हैं, जैसे, “यह टिड्डी-दल की तरह इतने दाग कहाँ से आये ? ये दाग वे दुर्वचन हैं जो तेरे मुख से निकला किये हैं। वह सब लाल लाल फल मेरे दान से लगे हैं ।" ( गुटका० )।"ये"सब बाते हरिश्चंद्र में सहज हैं ।" ( सत्य० )। “अरे । यह कौन देवता बडे प्रसन्न होकर श्मशान पर एकत्र हो रहे हैं ।" ( सत्य॰) ।

[ सू०–हमारी समझ में पहला रूप केवल आदर के लिए और दूसरा रूप बहुत्व के लिए लाना ठीक होगा । ]

(आ) पहले कही हुई दो वस्तुओं में से पहली के लिए "वह" और पिछली के लिए “यह" आता है, जैसे, "महात्मा और दुरात्मा मे इतना ही भेद है कि उनके मन, वचन और कर्म एक रहते हैं, इनके भिन्न भिन्न ।" ( सत्य० ) ।

कनक कनक तैं सौगुनी मादकता अधिकाय । वह खाये बौरात है यह पाये बौराय ।।-( सत० ) ।

( इ ) जिस वस्तु के सबध मे एक बार "यह" आता है उसीके