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अभी तक बहुधा इतनी अस्थिर है कि इस भाषा के वैयाकरण को व्यापक नियम बनाने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। ये कठिनाइयाँ भाषा के स्वाभाविक संगठन से भी उत्पन्न होती हैं; पर निरंकुश लेखक इन्हे और भी बढ़ा देते हैं। हिंदी के स्वराज्य मे अहंमन्य लेखक बहुधा स्वतंत्रता का दुरुपयोग किया करते हैं और व्याकरण के शासन का अभ्यास न होने के कारण इस विषय के उचित प्रदेशों के भी पराधीनता मान लेते हैं। प्रायः लोग इस बात को भूल जाते हैं कि साहित्यिक भाषा सभी देशो और कालो मे लेखकों की मातृ-भाषा अथवा बोल-चाल की भाषा से थोड़ी बहुत भिन्न रहती है और वह, मातृ-भाषा के समान, अभ्यास ही से आती हैं। ऐसी अवस्था में, केवल स्वतंत्रता के आवेश के वशीभूत होकर,शिष्ट भाषा पर विदेशी भापायो अथवा प्रांतीय बेलियो का अधिकार चलाना एक प्रकार की राष्ट्रीय अराजकता है। यदि स्वयं लेखक-गण अपनी साहित्यिक भाषा को योग्य अध्ययन और अनुकरण से शिष्ट, स्पष्ट और प्रामाणिक बनाने की चेष्टा न करेगे तो वैयाकरण "प्रयोग-शरण" का सिद्धांत कहाँ तक मान सकेगा ? हमने अपने व्याकरण में प्रसंगानुराध से प्रांतीय बोलियों का थोड़ा-बहुत विचार करके, केवल साहित्यिक हिदी का विवेचन किया है। पुस्तक मे विषय-विस्तार के द्वारा यह प्रयत्न भी किया गया है कि हिंदी-पाठकों की रुचि व्याकरण की ओर प्रवृत्त हो । इन सब प्रयन्नो की सफलता का निर्णय विज्ञ पाठक ही कर सकते हैं । इस पुस्तक में एक विशप त्रुटि रह गई है जो कालांतर ही में दूर हो सकती है, जब हिंदी भाषा की पूरी और वैज्ञानिक खोज की जायगी । हमारी समझ में किसी भी भाप के सवाग-पूण व्याक-रग मे उस भाप के रूपांतरो और प्रयेागो का इतिहास लिखना आवश्यक हैं। यह विषय हमारे व्याकरण में न था सका, क्योंकि