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संस्कृत प्राकृत हिंदी

आत्मन् अप्प आप

किञ्चित् किचि कुछ



तीसरा अध्याय।

विशेषण।

१४३-जिस विकारी शब्द से संज्ञा की व्याप्ति मर्यादित होती है उसे विशेषण कहते हैं, जैसे, बड़ा, कला, दयालु, भारी, एक, दो, सब, इत्यादि ।

[टी°—"हिदी व्याकरण" में संज्ञा के तीन भेद किए गये हैं—नाम, सर्वनाम और विशेषण। दूसरे व्याकरणों में भी विशेषण संज्ञा का एक उपभेद माना गया है। इसलिए यहाँ यह प्रश्न है कि विशेषण एक प्रकार की संज्ञा है अथवा एक अलग शब्द-भेद है। इस शंका का समाधान यह है कि सर्वनाम के समान विशेषण भी एक प्रकार की संज्ञा ही है, क्योंकि विशेषण भी वस्तु का अप्रत्यक्ष नाम है। पर इसको अलग शब्द भेद मानने का यह कारण है कि इसका उपयोग संज्ञा के बिना नहीं हो सकता और इससे संज्ञा का केवल धर्म सूचित होता है, "काला" कहने से घोड़ा, कपड़ा, दाग, आदि किसी भी वस्तु के धर्म की भावना मन में उत्पन्न हो सकती है, परतु उस धर्म का नाम "काला" नहीं है, किंतु "कालापन" है। जब विशेषण अकेला आता है तब उससे पदार्थ का बोध होता है और उसे संज्ञा कहते हैं। उस समय इसमें संज्ञा के समान विकार भी होते हैं, जैसे, "इसके बड़ों का यह संकल्प है।" (शकु°)।

सब विशेषण विकारी शब्द नहीं है, परंतु विरोषणों का प्रयोग संज्ञाओं के समान हो सकता है, और उस समय इनमें रूपांंतर भी होता है। इसलिए विशेषण को "विकारी शब्द' कहना उचित है। इसके सिवा कोई कोई लेखक संस्कृत की चाल पर विशेष्य के अनुसार विशेषण का रूपांतर करते हैं। जैसे, "मूर्तिमती यह सुदंरता है।" (क° क°)। "पुरवासिनी स्त्रिया।" (रघु°)।