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काम को कहते हैं।" अर्थात् "जिस शब्द से करने अथवा होने का अर्थ किसी काल, पुरुष और वचन के साथ पाया जाय।" (भाषा-प्रभाकर)। व्याकरण में शब्दों के लक्षण और वर्गीकरण के लिए उनके रूप और प्रयोग के साथ कभी कभी अर्थ का भी विचार किया जाता है, परंतु केवल अर्थ के अनुसार लक्षण करने से विवेचन में गड़बड़ होती है। यदि क्रिया के लक्षण में केवल "करना" या "होना" का विचार किया जाय तो "जाना", "जाता हुआ", "जानेवाला" आदि शब्दों के भी "क्रिया" कहना पड़ेगा। भाषा-प्रभाकर में दिये हुए लक्षण में जो काल, पुरुष और वचन की विशेषता बताई गई है वह क्रिया का असाधारण धर्म नहीं है और वह लक्षण एक प्रकार का वर्णन है।

क्रिया का जो लक्षण यह लिखा गया है उस पर भी यह आक्षेप हो सकता है कि कोई कोई क्रियाएँ अकेली विधान नहीं कर सकतीं—जैसे, "राजा दयालु हैं।" "पक्षी घोंसले बनाते हैं। इन उदाहरणों में "हैं" और "बनाते हैं" क्रियाएँ अकेली विधान नहीं कर सकतीं। इनके साथ क्रमशः "दयालु" और "घोंसले" शब्द रखने की आवश्यकता हुई है। इस आक्षेप का उत्तर यह है, कि इन वाक्यों में "है" और "बनाते हैं" विधान करनेवाले मुख्य शब्द हैं और उनके बिना काम नहीं बन सकता, चाहे उनके साथ कोई शब्द रहे या न रहे। क्रिया के साथ किसी दूसरे शब्द का रहना या न रहना उसके अर्थ की विशेषता है।]

१८९—धातु मुख्य दो प्रकार के होते हैं—(१) सकर्मक और (२) अकर्मक।

१९०—जिस धातु से सूचित होनेवाले व्यापार का फल कर्त्ता से निकलकर किसी दूसरी वस्तु पर पड़ता है, उसे सकर्मक धातु कहते हैं। जैसे, "सिपाही चोर को पकड़ता है।" "नौकर चिट्ठी लाया। इत्यादि। पहले वाक्य में "पकड़ता है" क्रिया के व्यापार का फल "सिपाही" कर्त्ता से निकलकर चोर पर पड़ता है, इसलिए "पकड़ता है" क्रिया (अथवा "पकड़" धातु) सकर्मक है। दूसरे वाक्य में "लाया" क्रिया (अथवा "ला" धातु) सकर्मक है, क्योंकि उसका फल "नौकर" कर्त्ता से निकलकर "चिट्ठी" कर्म पर पड़ता है।