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षण आता है। इन क्रियाओं को अपूर्ण अकर्मक क्रिया कहते हैं और जो शब्द इनका आशय पूरा करने के लिए आते हैं उन्हें पूर्त्ति कहते हैं। "होना," "रहना, "बनना," "दिखना," "निकलना," "ठहरना" इत्यादि अपूर्ण अकर्मक क्रियाएँ हैं। उदा॰—"लड़का चतुर है।" "साधु चोर निकला।" "नौकर बीमार रहा।" "आप मेरे मित्र ठहरे।" "यह मनुष्य विदेशी दिखता है।" इन वाक्यों में "चतुर", "चोर", "बीमार" आदि शब्द पूर्त्ति हैं।

(अ) पदार्थों के स्वाभाविक धर्म और प्रकृति के नियमों को प्रकट करने के लिए बहुधा "है" या "होता है" क्रिया के साथ संज्ञा या विशेपण का उपयोग किया जाता है, जैसे "सोना भारी धातु है।" "घोड़ा चौपाया है।" "चांदी सफेद होती है।" "हाथी के कान बड़े होते हैं।"
(आ) अपूर्ण क्रियाओं से साधारण अर्थ में पूरा आशय भी पाया जाता है, जैसे, "ईश्वर है", "सबेरा हुआ", "सूरज निकला", "गाड़ी दिखाई देती है", इत्यादि।
(इ) सकर्मक क्रियाएँ भी एक प्रकार की अपूर्ण क्रियाएँ हैं; क्योंकि उनसे कर्म के बिना पूरा आशय नहीं पाया जाता। तथापि अपूर्ण अकर्मक और सकर्मक क्रियाओं में यह अंतर है कि अपूर्ण अकर्मक क्रिया की पूर्त्ति से उसके कर्त्ता ही की स्थिति वा विकार सूचित होता है और सकर्मक क्रिया की पूर्ति (कर्म) कर्त्ता से भिन्न होती है, जैसे, "मंत्री राजा बन गया", "मंत्री ने राजा को बुलाया। सकर्मक क्रिया की पूर्त्ति (कर्म) को बहुधा पूरक कहते हैं।

१९५—देना, बतलाना, कहना, सुनाना और इन्हीं अर्थों के दूसरे कई सकर्मक धातुओं के साथ दो दो कर्म रहते हैं। एक कर्म से बहुधा पदार्थ का बोध होता है और उसे मुख्य कर्म कहते