हैं; और दूसरा कर्म जो बहुधा प्राणि-वाचक होता है, गौण कर्म कहलाता है, जैसे, "गुरु ने शिष्य को (गौण कर्म) पोथी (मुख्य कर्म) दी।" "मैं तुम्हें उपाय बताता हूँ।" इत्यादि।
१९६—कभी कभी करना, बनाना, समझना, पाना, मानना, आदि धातुओं का आशय कर्म के रहते भी पूरा नहीं होता, इसलिए उनके साथ कोई संज्ञा या विशेषण पूर्त्ति के रूप में आता है। जैसे, "अहल्याबाई ने गंगाधर को अपना दीवान बनाया" "मैंने चोर को साधु समझा।" इन क्रियाओं को अपूर्ण सकर्मक क्रियाएँ कहते हैं और इनकी पूर्त्ति कर्म-पूर्त्ति कहलाती है। इससे भिन्न अकर्मक अपूर्ण क्रिया की पूर्त्ति को उद्देश्य-पूर्त्ति कहते हैं।
१९७—किसी किसी अकर्मक और किसी किसी सकर्मक धातु के साथ उसी धातु से बनी हुई भाववाचक संज्ञा कर्म के समान प्रयुक्त होती है, जैसे, "लड़का अच्छी चाल चलता है।" "सिपाही कई लड़ाइयाँ लड़ा।" "लड़कियाँ खेल खेल रही हैं।" "पक्षी अनोखी बोली बोलते हैं।" "किसान ने चोर को बड़ी मार मारी।" इत्यादि। इस कर्म को बहुधा सजातीय कर्म और क्रिया को सजातीय क्रिया कहते हैं।
यौगिक धातु।
१९८—व्युत्पत्ति के अनुसार धातुओं के दो भेद होते हैं—(१) मूल-धातु और (२) यौगिक धातु।