पृष्ठ:हिंदी व्याकरण.pdf/२०७

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भी आया है। यह शब्द यथार्थ में "यहाँ" (क्रियाविशेषण) है, परंतु बोलने में कदाचित् कहीं कहीं "हाँ" हो जाता है। "यहाँ" का अर्थ "पास" के समान अधिकार का भी है। कभी कभी "पास" और "यहाँ" का लोप हो जाता है और केवल "के" से इनका अर्थ सूचित होता है; जैसे, "इस महाजन के बहुत धन है।" "उनके एक लड़का है।" "मेरे कोई बहिन न हुई।" (गुटका॰)।

सिवा—कोई कोई इसे अपभ्रंश-रूप में "सिवाय" लिखते हैं। प्लाट्‌स साहब के "हिंदुस्तानी व्याकरण" में दोनों रूप दिये गये हैं। साधारण अर्थ के सिवा इसका प्रयोग कई एक अपूर्ण उक्तियों की पूर्त्ति के लिए भी होता है; जैसे, "इन भाटों की बनाई हुई वंशावली की कदर इससे बखूबी मालूम हो जाती है। सिवाय इसके जो कभी कोई ग्रंथ लिखा भी गया, (तो) छापे की विद्या मालूम न होने के कारण वह काल पाके अशुद्ध हो गया।" (इति॰)। निषेधवाचक वाक्य में इसका अर्थ "छोड़कर" या "बिना" होता है; जैसे, "उसके सिवाय और कोई भी यहाँ नहीं आया।" (गुटका)।

साथ—यह कभी कभी "सिवा" के अर्थ में आता है; जैसे, इन बातों से सूचित होता है कि कालिदास ईसवी सन् के तीसरे शतक के पहले के नहीं। इसके साथ ही यह भी सूचित होता है कि वे ईसवी सन् के पाँचवे शतक के बाद के भी नहीं।" (रघु॰)।

अनुसार, अनुरूप, अनुकूल—ये शब्द स्वरादि होने के कारण पूर्ववर्ती संस्कृत शब्दों के साथ संधि के नियमों से मिल जाते हैं और इनके पूर्व "के" का लोप हो जाता है जैसे, आज्ञानुसार, इच्छानुरूप, धर्मानुकूल। इस प्रकार के शब्दों को संयुक्त संबंधसूचक मानना चाहिए और इनके पूर्व समास के लिंग के अनुसार संबंध कारक की विभक्ति लगानी चाहिए। जैसे, "सभा के अनुसार" (भाषासार॰)। कोई कोई लेखक स्त्रीलिंग संज्ञा के पूर्व