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है। यह विभक्ति-सहित और विभक्ति-रहित दोनों प्रयोगों में आता है; जैसे, "पहले शतक में कालिदास के ग्रंथों की जैसी परिमार्जित संस्कृत का प्रचार ही न था।" (रघु॰)। "बीजगणित जैसे क्लिष्ट विषय को समझाने की चेष्टा की गई है।" (सर॰)। इन दोनों प्रयोगों में यह अंतर है कि पहले वाक्य में "जैसी" "ग्रंथों" और "संस्कृत" का संबंध सूचित नहीं करता, किंतु "की" के पश्चात् लुप्त "संस्कृत" शब्द का संबंध दूसरे "संस्कृत" शब्द से सूचित करता है। दूसरे वाक्य में "बीज-गणित" का संबंध "विषय" के साथ सूचित होता है, इसलिए वहाँ संबंध-कारक की आवश्यकता नहीं है। इसी कारण आगे दिये हुए उदाहरण में भी "के" नहीं आया है—"शिवकुमार शास्त्री जैसे धुरधर महामहोपाध्याय" (शिव॰)।

सा—इस शब्द का कुछ विचार क्रियाविशेषण के अध्याय में किया गया है।(अं॰—२२७)। इसका प्रयोग "जैसा" के समान दो प्रकार से होता है और दोनों प्रयोगों में वैसा ही अर्थ-भेद पाया जाता है। जैसे, "डील पहाड़ सा और बल हाथी का सा है।" (शकु॰)। इस वाक्य में डील को पहाड़ की उपमा दी गई है, इसलिए "सा" के पहले "का" नहीं आया, परंतु दूसरा "सा" अपने पूर्व लुप्त "बल" का संबंध पहले कहे हुए "बल" से मिलता है, इसलिए इस "सा" के पहले "का" लाने की आवश्यकता हुई है। "हाथी सा बल" कहना असंगत होता। मुद्राराक्षस में "मेरे से लोग" आया है; परंतु इसमें समता कहनेवाले से की गई है न कि उसकी संबंधिनी किसी वस्तु से, इसलिए शुद्ध प्रयोग "मुझसे लोग" होना चाहिये। कोई कोई इसे केवल प्रत्यय मानते हैं, परंतु प्रत्यय का प्रयोग विभक्ति के पश्चात् नहीं होता। जब यह संज्ञा या सर्वनाम के साथ विभक्ति के बिना आता है तब इसे प्रत्यय कह