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सकते हैं और सात शब्द का विशेषण मान सकते हैं, जैसे, फुलसा शरीर, चमेली से अंग पर, इत्यादि ।

भर, तक,मात्र--इनका भी विचार क्रियाविशेपण के अध्याय में हो चुका है । जब इनका प्रयाग संबंधसूचक के समान होती है। तब ये बहुधा कालवाचक, स्थानवाचक वा परिमाणवाचक शब्दों के साथ आकर उनका सवध क्रिया से वो दूसरे शब्दों से मिलाते हैं और इनके परे कारक की विभक्ति नहीं आती, जैसे, “वह रातभर जागता है। "लड़का नगर तक गया ।" इसमें तिल मात्र सदेह नहीं है । तक) के अर्थ में कभी कभी सस्कृत का ‘‘पर्यत' शब्द आता है, जैसे, “उसने समुद्र पर्यंत राज्य बढाया ।भर और तक के योग से सज्ञा का विकृत रूप आता है, परमात्र के साथ उसका मूल रूप ही प्रयुक्त हेाता है, जैसे, चैमासेभर।( इति० ) । “ समुद्र के तटों तक। ( रघु० ) एक पुस्तक कानाम "कटोरा-भर खून"है,। पर “कटोरी-भर” शब्द अशुद्ध है। यह "कटोरे-भर" होना चाहिए । "मात्र" शब्द का प्रयोग केवल कुछ संस्कृत शब्दो के साथ (सवधसूचक के समान ) होता है, जैसे, क्षण-मात्र यहाँ ठहरो,” पल-मात्र, लेश-मात्र, इत्यादि । “भर और मात्र बहुधा बहुबचन संज्ञा के साथ नहीं आते । जब तक? भर’ और ‘मात्र का प्रयोग क्रियाविशेषणके समान होता है तब इनके पश्चात् विभक्तियाँ आती हैं, जैसे, उसके राज भर मैं ।"(गुटको॰)। ‘छोटे वडे लाटों तक के नाम प चिट्टियाँ भेजते हैं।” (शिव०) । “अब हिदुओ के खाने मात्र से काम।"(भा० दु० )।

विना-यह कभी कभी कृदत अव्यय के साथ आकर क्रिया- विशेषण होता है, जैसे, “विना किसी कार्य का कारण जाने हुए।" ( सर०) । “विना अतिम परिणाम साचे हुए ।" ( इति० ) । कभी कभी यह संबंध-कारक की विशेषता बताता है, जैसे, "आपके