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होता है, जैसे, "सब धंधेवालों की अपेक्षा ऐसा ही ख्याल करना चाहिए।" (जीविका०)।

लौं—कोई कोई इसे "तक" के अर्थ में गद्य में भी लिखते हैं, परंतु यह शिष्ट प्रयोग नही है। पुरानी कविता में "लौं" "समान" के अर्थ में भी आया है, जैसे, "जानत कछु जल-थभ-विधि दुर्योधन लौं लाल। (सत॰)।

[टी॰—पहले कहा गया है कि हिंदी के अधिकांश वैयाकरण अव्ययों के भेद नहीं मानते। अव्यय के और और भेद तो उनके अर्थ और प्रयेाग के कारण बहुत करके निश्चित हैं चाहे कोई उनको माने या न माने, परंतु संबंधसूचक को एक अलग शब्द-भेद मानने में कई बाधाएँ हैं। हिंदी में कई एक संज्ञा, विशेषण और क्रियाविशेषणों को केवल संबंधकारक अथवा कभी कभी दूसरे कारक की विभक्ति के पश्चात् आने ही के कारण संबंधसूचक मानते हैं, परंतु इनका एक अलग वर्ग न मानकर एक विशेष प्रयेाग मानने से भी काम चल सकता है, जैसा कि संस्कृत में उपरि, विना, पृथक, पुरः, अग्रे, आदि अव्ययों के संबध में होता है, जैसे, "गृहस्योपरि," "रामेण विना।" दूसरी कठिनाई यह है कि जिस अर्थ में काई केाई संबंधसूचक आते हैं उसी अर्थ में कारक-प्रत्यय अर्थात् विभक्तियाँ भी आती है, जैसे, घर में, घर के भीतर, तलवार से, तलवार के द्वारा, पेड पर, पेड़ के ऊपर। तब इन विभक्तियों के भी संबंधसूचक क्यों न मानें? इनके सिवा एक और अडचन यह है कि कई एक शब्दों—जैसे, तक, भर, सुद्धा, रहित, पूर्वक, मात्र, सा, आदि—के विषय में निश्चयपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि ये प्रत्यय है अथवा संबंधसूचक। हिंदी की वर्तमान लिखावट पर से इसका निर्णय करना और भी कठिन है। उदाहरणार्थ, कोई "तक" के पूर्व शब्द से मिलाकर और कई अलग लिखते है। ऐसी अवस्था में संबंधसूचक का निर्दोष लक्षण बनाना सहज नहीं है।

संबंधसूचक के पश्चात् विभक्ति का लोप हो जाता है और विभक्ति के पश्चात् कोई दूसरा प्रत्यय नहीं आता, इसलिए जो शब्द विभक्ति के पश्चात् आते हैं उनको प्रत्यय नहीं कह सकते और जिन शब्दों के पश्चात् विभक्ति आती है वे संबंधसूचक नहीं कहे जा सकते। उदाहरणार्थ, "हाथी का सा बल" में "सा" प्रत्यय नहीं, किंतु संबधसूचक है, और "संसार भर के ग्रंथ-गिरि" में