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"भर" सबंधसूचक नहीं किंतु प्रत्यय अथवा क्रियाविशेषण है। इस दृष्टि से केवल उन्हीं शब्दों के संबधसूचक माननी चाहिए जिनके पश्चात् कभी विभक्ति नहीं आती और जिनका प्रयेाग संज्ञा के बिना कभी नही हो सकता। इस प्रकार के शब्द केवल "नाई," "प्रति," "पर्यत," "पूर्वक," "सहित" और "रहित" है। इनमें से अंत के पाँच शब्दों के पूर्व कभी कभी (संबंध) कारक की विभक्ति नहीं आती। उस समय इन्हें प्रत्यय कह सकते है। तब केवल एक "नाई" शब्द ही सबंधसूचक कहा जा सकता है, पर वह भी प्रायः अप्रचलित है। फिर तक, भर, मात्र और सुद्धां के पश्चात् कभी कभी विभक्तिया आती हैं; इसलिए और और शब्द-भेदों के समान ये केवल स्थानीय रूप से संबधसूचक हो सकते हैं। ये शब्द कभी संबधसूचक, कभी प्रत्यय और कभी दूसरे शब्द-भेद भी होते है। (इनके भिन्न भिन्न प्रयेागो का उल्लेख क्रियाविशेषण के अध्याय में तथा इसी अध्याय में किया जा चुका है।) इससे जाना जाता है कि हिंदी में मूल-संबंधसूचकों की संख्या नहीं के बराबर है, परंतु भिन्न भिन्न शब्दों के प्रयेाग संबंधसूचक के समान होते है, इसलिए इसको एक अलग शब्द-भेद मानने की आवश्यकता है। भाषा में बहुधा कोई भी शब्द आवश्यकता के अनुसार संबंधसूचक बना लिया जाता है और जब वह अप्रचलित हो जाता है तब उसके बदले दूसरे शब्द उपयेाग में आने लगता है। हिंदी के "अतिरिक्त," "अपेक्षा," "विपय," "विरुद्ध" अदि संबंधसूचक पुरानी पुस्तकों मे नहीं मिलते चैरि पुरानी पुस्तकों के "तई," "छुट," "संती," "लौं," आदि आजकल अप्रचलित है।]

[सू०—संबधसूचको और विभक्तियों का विशेष असर कारक-प्रकरण में बताया जायेगा।]