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के लिए होता है, जैसे, "इस बात की पुष्टि में चैटर्जी महाशय ने रघुवंश के तेरहवें सर्ग का एक पद्य और रघुवंश तथा कुमार-सम्भव में व्यवहृत "संघात" शब्द भी दिया है। (रघु०)।

और—इस शब्द के सर्वनाम, विशेषण और क्रिया-विशेषण होने के उदाहरण पहले दिये जा चुके हैं। (अं०—१८४, १८५, २२३)। समुच्चय-बोधक होने पर इसका प्रयोग साधारण अर्थ के सिवा नीचे लिखे विशेष अर्थों में भी होता है (प्लाटूस साहब का हिंदुस्थानी व्याकरण)—

(अ) दो क्रियाओं की समकालीन घटना; जैसे, "तुम उठे और खरावी आई"।
(आ) दो विषयों का नित्य-संबंध; जैसे, "मैं हूँ और तुम है।"

(= मैं तुम्हारा साथ न छोड़ूँगा)।

(इ) धमकी वा तिरस्कार; जैसे, "फिर मैं हूँ और तुम हो" (= मैं तुमको खूब समझूँगा)।

शब्दों के बीच में बहुधा "और" का लोप हो जाता है; जैसे, "भले-बुरे की पहचान," "सुख-दुख का देनेवाला", "चलो, देखो," "मेरे हाथ-पाँव नहीं चलते"। यथार्थ में ये सब उदाहरण द्वंद्व-समास के हैं।

एवं—"तथा" के समान इसका भी अर्थ "वैसे" वा "ऐसे" होता है, परंतु उच्च हिदी मे यह केवल "और" के पर्याय में आता है; जैसे, "लोग उपमायें देखकर विस्मित एवं मुग्ध हे जाते हैं।" (सर०)।

भी—यह पहले वाक्य से कुछ सादृश्य मिलाने के लिए आता है; जैसे, "कुछ महात्म ही पर नही, गंगा जी का जल भी ऐसा ही उत्तम और मनोहर है।" (स०)। कभी कभी यह, दूसरे वाक्य के बिना, केवल पहली कथा में संबंध मिलाता है, जैसे,