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[टी०—बँगला, उड़िया, मराठी, आदि आर्य-भाषाओं में "कि" वा "जो" के संबंध से दो प्रकार की रचनाएँ पाई जाती है जो संस्कृत के "यत्" और "इति" अव्ययों से निकली हैं। संस्कृत के "यत्" के अनुसार उनमें "ने" आता है और "इति" के अनुसार बँगला में "बलिया," उडिया में "बोलि," मराठी में "म्हणून" और नैपाली में (कैलाग साहब के अनुसार) "भनि" है। इन सब का अर्थ "कहकर" होता है। हिंदी में "इति" के अनुसार रचना नहीं होती; परंतु "यत्" के अनुसार इसमें "जों" (स्वरूपवाचक) आता है। इस "जों" का प्रयोग उर्दू "कि" के समान होने के कारण "जो" के बदले "कि" को प्रचार हो गया है और "जो" कुछ चुने हुए स्थानों में रह गया। मराठी और गुजराती में "कि" क्रमश "की" और "के" के रूप में आता है। दक्षिणी हिंदी में "इति" के अनुसार जो रचना होती है; उसमें "इति" के लिए "करके" (समुच्चय-बधिक के समान) आता है, जैसे, "मैं जाऊँगा करके नौकर मुझसे कहता था" = नौकर मुझसे कहता था कि मैं जाऊँगा।]

कभी कभी मुख्य वाक्य मे "ऐसा," "इतना,", "यहाँ तक" अथवा कोई विशेषण आता है और उसका स्वरूप (अर्थ) स्पष्ट करने के लिए "कि" के पश्चात् आश्रित वाक्ये आता है; जैसे, "क्या और देशो में इतनी सर्दी पडती है कि पानी जमकर पत्थर की चट्टान की नाई होजाता है?" (भाषासार०)। "चोर ऐसा भागा कि उसका पता ही न लगा।" "कैसी छलांग भरी है कि धरती से ऊपर ही दिखाई देता है।" (शकु०)। "कुछ लोगों ने आदमियों के इस विश्वास को यहाँ तक उत्तेजित कर दिया है कि वे अपने मनोविकारों को तर्कशास्त्र के प्रमाणों से भी अधिक बलवान मानते हैं।" (स्वा०)। "कालचक्र बड़ा प्रबल है कि किसी को एक ही अवस्था में नहीं रहने देता।" (मुद्रा०)। "तू बड़ा मूर्ख है जो हमसे ऐसी बात कहता है।" (प्रेम०)।

[सू०—इस अर्थ में "कि" (वा "जो") केवल स्वरूपवाचक ही नहीं, किंतु परिणामबोधक भी है। समानाधिकरण समुच्चय-बोधक "इसलिए" से जिस

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