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परिणाम का बोध होता है उससे "कि" के द्वारा सूचित होनेवाला परिणाम भिन्न है, क्योंकि इस में परिणाम के साथ स्वरूप का अर्थ मिला हुआ है। इस अर्थ में केवल एक समुच्चय-बोधक "कि" आता है; इसलिए उसके इस एक अर्थ का विवेचन यहीं कर दिया गया है।]

कभी कभी "यहाॅ तक" और "कि" साथ साथ आते हैं और केवल वाक्यों ही को नही, किंतु शब्दों को भी जोड़ते हैं; जैसे, "बहुत आदमी उन्हे सच मानने लगते हैं; यहाँ तक कि कुछ दिनो में वे सर्वसम्मत हो जाते हैं।" (स्वा०)। "इसपर तुम्हारे बड़े अन्न, रस्सियाॅ, यहाँ तक कि उपले लादकर लाते थे।" (शिव०)। "क्या यह भी संभव है कि एक के काव्य के पद के पद, यहाँ तक कि प्रायः श्लोकार्द्ध के श्लोकाद्धं तद्वत् दूसरे के दिमाग से निकल पड़ें?" (रघु०)। इन उदाहरणों में "यहाॅ तक कि" समुच्चय-बोधक वाक्यांश है।

अर्थात्—यह संस्कृत विभक्त्यंत संज्ञा है, पर हिंदी में इसका प्रयोग समुच्चय-बोधक के समान होता है। यह अव्यय किसी शब्द वा वाक्य को अर्थ समझाने में आता है, जैसे, "धातु के टुकड़े ठप्पे के होने से सिक्का अर्थात् मुद्रा कहते हैं।" (जीविका०)। "गौतम बुद्ध अपने पॉचों चेलों समेत चौमासे भर अर्थात् बरसात भर बनारस में रहा।" (इति०)। "इनमें परस्पर सजातीय भाव है, अर्थात् ये एक दूसरी से जुदा नहीं हैं।" (स्वा०)। कभी कभी "अर्थात्" के बदले "अथवा," "वा," "या" आते हैं; और तब यह बताना कठिन हो जाता है कि ये स्वरूपवाचक हैं या विभाजक; अर्थात् ये एक ही अर्थवाले शब्दों का मिलाते हैं या अलग अलग अर्थवाले शब्दों को; जैसे, "बस्ती अर्थात् जनस्थान वा जनपद का तो नाम भी मुश्किल से मिलता था।" (इति०)। "तुम्हारी हैसियत वा स्थिति चाहे जैसी हो।" (आदर्श०)। "किसी और तरीके से