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सज्ञान, बुद्धिमान या अक्लमंद होना आदमी के लिए मुमकिन ही नहीं।" (स्वा०)।

[सू०—किसी वाक्य में कठिन शब्द का अर्थ समझाने में अथवा एक वाक्य का अर्थ दूसरे वाक्य के द्वारा स्पष्ट करने में विभाजक तथा स्वरूपबोधक अव्यय के अर्थ के अतर पर ध्यान न रखने से भाषा में सरलता के बदले कठिनता आ जाती है और कहीं कहीं अर्थहीनता भी उत्पन्न होती है।

कानूनी भाषा में दो नाम सूचित करने के लिए "अर्थात्" का पर्यायवाची उर्दू "उर्फ़" लाया जाता है और साधारण बोल-चाल मैं "याने" आता है।]

२४६—इस अध्याय को समाप्त करने के पहले हम "जो" के एक ऐसे प्रयोग का उदाहरण देते हैं जिसका समावेश पहले कहे हुए समुच्चयबोधकों के किसी वर्ग में नहीं हुआ है। "मुझे मरना नहीं जो तेरा पक्ष करूँ।" (प्रेम०)। इस उदाहरण में "जो" न संकेतवाचक है, न उद्देशवाचक, न स्वरूपवाचक। इस प्रयोग का विवेचन हमे किसी अँगरेज़ी-हिंदी व्याकरण में भी नहीं मिला। हमारी समझ मे "जो" का अर्थ यहाँ "जिसलिए" है और "जिसलिए" कभी कभी "इसलिए" के पर्याय में आता है, जैसे, "यहाँ एक सभा होनेवाली है, जिसलिए (इसलिए) सब लोग इकट्टे हैं।" इस दृष्टि से दूसरा वाक्य मुख्य वाक्य होगा और "मुझे मरना नहीं" उद्देशवाचक वाक्य होगा। जब उद्देशवाचक वाक्य मुख्य वाक्य के पहले आता है तब उसके साथ कोई समुच्चयबोधक नहीं रहता, परतु मुख्य वाक्य "इसलिए" से आरंभ होता है। (अं० २४५-आ)।

२४७—संस्कृत और उर्दू शब्दों को छोड़कर (जिनकी व्युत्पत्ति हिंदी व्याकरण की सीमा के बाहर है) हिंदी के अधिकांश समुच्चय-बोधको की व्युत्पत्ति दूसरे शब्दभेदों से है और कई एक का प्रचार आधुनिक है। "और" सार्वनामिक विशेषण है। "जो"