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"सत्य-हरिश्चंद्र" में स्त्रीलिंग संज्ञा के साथ "रे" आया है; जैसे, "वाह रे! महानुभावता!" यह प्रयोग अशुद्ध है।]

२५०—कई एक क्रियाएँ, संज्ञाएँ, विशेषण और क्रियाविशेषण भी विस्मयादि-बोधक हो जाते हैं; जैसे, भगवान राम राम! अच्छा! लो! हट! चुप! क्यों! खैर! अस्तु!

२५१—कभी कभी पूरा वाक्य अथवा वाक्यांश विस्मयादि-बोधक हो जाता है, जैसे, क्या बात है! बहुत अच्छा! सर्वनाश हो गया! धन्य महाराज! क्यों न हो! भगवान न करे! इन वाक्यों और वाक्यांशों से मनोविकार अवश्य सूचित होते हैं, परंतु इन्हे विस्मयादि-बोधक मानना ठीक नहीं है। इनमे जो वाक्यांश हैं उनके अध्याहृत शब्दों को व्यक्त करने से वाक्य सहज ही बन सकते हैं। यदि इस प्रकार के वाक्यों और वाक्यांशों के विस्मयादि-बोधक अव्यय मानें तो फिर किसी भी मनोविकारसूचक वाक्य को विस्मयादि-बोधक अव्यय मानना होगा; जैसे, "अपराधी निर्दोष है, पर उसे फाँसी भी हो सकती है!" (शिव०)।

(क) कोई कोई लोग बोलने में कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं जिनकी न तो वाक्य में कोई आवश्यकता होती है और न जिनका वाक्य के अर्थ से कोई संबध रहता है, जैसे, "जो है सो," "राम-आसरे," "क्या कहना है," "क्या नाम करके," इत्यादि। कविता में जु, सु, हि, अही, इत्यादि शब्द इसी प्रकार से आते हैं जिनका पादपूरक कहते हैं। "अपना" ("अपने") शब्द भी इसी प्रकार उपयोग में आता है; जैसे, "तू पढ़ लिखकर होशयार हो गया, अपना कमा खा।" (सर०)। ये सब एक प्रकार के व्यर्थ अव्यय हैं, और इनको अलग कर देने से वाक्यार्थ में कोई बाधा नहीं आती।