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दूसरा भाग।

शब्द-साधन।

दूसरा परिच्छेद।

रूपांतर।

पहला अध्याय।

लिंग।

२५२—अलग अलग अर्थ सूचित करने के लिए शब्दों में जो विकार होते हैं उन्हें रूपांतर कहते हैं। (अं०—९१)।

[सु०—इस भाग के पहले तीन अध्यायों में संज्ञा के रूपांतरों का विवेचन किया जायेगा।]

२५३—संज्ञा में लिंग, वचन और कारक के कारण रूपांतर होता है।

२५४—संज्ञा के जिस रूप से वस्तु की (पुरुष व स्त्री) जाति का बोध होता है उसे लिंग कहते हैं। हिदी मे दो लिंग होते हैं—(१) पुल्लिंग और (२) स्त्रीलिंग।

[टी०—सृष्टि की संपूर्ण वस्तुओं की मुख्य दो जातियाँ—चेतन और जड़—हैं। चेतन वस्तुओं (जीवधारियों) में पुरुष और स्त्री-जाति का भेद होता है; परंतु जड़ पदार्थों में यह भेद नहीं होता। इसलिए संपूर्ण वस्तुओं की एकत्र तीन जातिय होती हैं—पुरुष, स्त्री और जड़। इन तीन जातियों के विचार से व्याकरण में उनके वाचक शब्दों को तीन लिंगों में बाँटते हैं—(१) पुल्लिंग (२) स्त्रीलिंग और (३) नपुंसक-लिंग। अंगरेजी व्याकरण में लिंग का निर्णय बहुधा इसी व्यवस्था के अनुसार होता है। संस्कृत, मराठी, गुजराती, आदि भाषाओं में भी तीन तीन लिंग होते है; परंतु उनमें कुछ जड़ पदार्थों