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के हैं, जैसे; नेत्र (पु०), आँख (स्त्री०), मार्ग (पु०), बाट (स्त्री०)।
(आ) एक ही अंत के कई एक शब्द अलग अलग लिंगों में आते हैं। जैसे, कोदो (पु०), सरसों (स्त्री०), खेल (पु०), दौड़ (स्त्री०), आलू (पु०), लावू (स्त्री०)।
(इ) कई शब्दों को भिन्न भिन्न लेखक भिन्न भिन्न लिंगों में लिखते हैं; जैसे, उसकी चर्चा, (स्त्री०)। (परी०)। इसका चर्चा, (पु०)। (इति०)। सीरी पवन, (स्त्री०)। (नील०)। पवन चल रहा था, (पु०)। (रघु०)। मेरे जान, (पु०)। (परी०)। मेरी जान में, (स्त्री०)। (गुटका०)।
(ई) एकही शब्द एकही लेखक की पुस्तकों में अलग अलग लिंगों में आता है, जैसे, देह "ठंढी पड़ गई" (ठेठ०, पृष्ठ ३३), "उसके सब देह में" (ठेठ, पृष्ठ ५०)। "कितने" संतान हुए (इति०, पृ० १), "रघुकुल-भूषण की संतान" (गुटका ती० भा०, पृ० ४)। "बहुत बरसें हो गई।" (स्वा०, पृष्ठ २१)। "सवा सौ बरस हुए।" (सर०, भाग १५, पृष्ठ ६४०)।

[सू०—अत के दो (इ और ई) उदाहरणों की लिंग-भिन्नता शिष्ट लोग के अनादर से अथवा छापे की भूल से उत्पन्न हुई है।]

२६०—किसी किसी वैयाकरण ने अप्राणिवाचक संज्ञाओं के अर्थ के अनुसार लिंग-निर्णय करने के लिए कई नियम बनाये हैं; ये अव्यापक और अपूर्ण हैं। अव्यापक इसलिए कि एक नियम जितने उदाहरण हैं प्राय उतने ही अपवाद हैं; और अपूर्ण लिए कि ये नियम थोड़ेही प्रकार के शब्दों पर बने हैं शेष शब्दों लिए कोई नियम ही नहीं है। इन अव्यापक और अपूर्ण नियमों कुछ उदाहरण हम अन्यान्य व्याकरणों से लेकर यहाँ लिखते हैं—