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अब यहाँ यह प्रश्न है कि जब वचन और विभक्तियाँ एक दूसरे से इस प्रकार मिली हुई हैं तब हिंदी में संस्कृत के अनुसार ही उनका एकत्र विचार क्यों न किया जाय? इस प्रश्न का संक्षिप्त उत्तर यह है कि हिंदी में वचन और विभक्ति को अलग विचार अधिकांश में सुभीते की दृष्टि से किया जाता है। संस्कृत में प्रातिपदिक (संज्ञा का मूल रूप) प्रथमा विभक्ति के एक वचन से भिन्न रहता है और इसी प्रातिपदिक मैं एकवचन, द्विवचन और बहुवचन के प्रत्यय जोड़े जाते है, परंतु हिंदी (और मराठी, गुजराती, अँगरेजी आदि भाषाओं) में संज्ञा का मूल रूप ही प्रथमा विभक्ति (कर्ता-कारक) में आता है। इसी मूल रूप में प्रत्यय लगाने से प्रथमा का बहुवचन बनता है, जैसे, घोड़ा—घोड़े, लड़की—लड़कियां, आदि। दूसरे (विभक्ति-सहित) कारको में बहुवचन का जो रूप होता है वह प्रथमा (विभक्ति-रहित कर्ता-कारक) के बहुवचन रूप से भिन्न रहता है, और उस (रूप) में इस रूप का कुछ काम नहीं पड़ता, जैसे, घोड़े, घोड़ों ने, घोड़ो को, इत्यादि। इसलिए प्रथमा (विभक्ति रहित कर्ता) के दोनों वचनों का विचार दूसरे कारको से अलग ही करना पडेगा, चाहे वह वचन के साथ किया जाय चाहे कारक के साथ। विभक्ति-रहित बहुवचन का विचार इस अध्याय में करने से यह सुभीता होगा कि विभक्तियों के कारण संज्ञाओं में जो विकार होते हैं वे कारक के अध्याय में स्पष्टतया बताये जा सकेंगे।]

स॰—यहाँ विभक्ति-रहित बहुवचन के नियम सुभीते के लिए लिंग के अनुसार अलग अलग दिये जाते हैं।

विभक्ति-रहित बहुवचन बनाने के नियम।

१—हिंदी और संस्कृत-शब्द।

(क) पुल्लिंग

२८९—हिंदी आकारांत पुल्लिंग शब्दों का बहुवचन बनाने के लिये अंत्य "आ" के स्थान में "ए" लगाते हैं, जैसे—

लड़का—लड़के लोटा—लोटे बच्चा—बच्चे

  • संस्कृत, जेंद, अरबी, इब्रानी, यूनानी, लैटिन आदि भाषाओं में तीन वचन होते हैं, (१) एकवचन (२) द्विवचन (३) बहुवचन। द्विवचन से दो का और बहुवचन से दो से अधिक संख्या का बेध होता है।