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"जल" संज्ञा का रूपांतर है और उससे "जल" का संबंध "समुद्र" से जाना जाता है। इसलिए "रामचंद्रजी" ने, "समुद्र पर," "जल के," "बंदरों से" और "पुल" संज्ञाओं के कारक कहलाते हैं। कारक सूचित करने के लिए संज्ञा या सर्वनाम के आगे जो प्रत्यय लगाये जाते हैं उन्हें विभक्तियाँ कहते हैं। विभक्ति के योग से बने हुए रूप विभक्तयंत शब्द वा पद कहते हैं।

[टी॰—जिस अर्थ में "कारक" शब्द का प्रयेाग संस्कृत-व्याकरणों में होता है उस अर्थ में इस शब्द का प्रयेाग यह नहीं हुआ है और न वह अर्थ अधिकाश हिदी-व्याकरणो में माना गया है। केवल "भषातत्वदीपिका" और "हिंदी-व्याकरण" में जिनके लेखक महाराष्ट्र हैं, मराठी व्याकरण की रूढ़ि के अनुसार, "कारक" और "विभक्ति" शब्दों का प्रयेाग प्राय संस्कृत के अनुसार किया गया है। संस्कृत में क्रिया के साथ संज्ञा (सर्वनाम और विशेषण) के अन्वय (संबंध) को कारक कहते हैं और उनके जिस रूप से यह अन्वय सूचित होता है उसे विभक्ति कहते है। विभक्ति में जो प्रत्यय लगाये जाते हैं ये विभक्ति-प्रत्यय कहाते हैं। संस्कृत में सात विभक्तियाँ और छ कारक माने जाते है। षष्ठी विभक्ति को संस्कृत वैयाकरण कारक नहीं मानते, क्योंकि उसका संबंध क्रिया से नहीं है।

संस्कृत में कारक और विभक्ति के अलग मानने का सब से बड़ा और मुख्य कारण यह है कि एकही विभक्ति कई कारकों में आती है। यह बात हिंदी में भी है, जैसे घर गिरा, किसान घर बनाती है, घर बनाया जाता है, लड़का घर गया। इन वाक्यों में घर शब्द (संस्कृत व्याकरण के अनुसार) एकही रूप (विभक्ति) में आकर क्रिया के साथ अलग अलग संबध (कारक) सूचित करता है। इस दृष्टि से कारक और विभक्ति अवश्यही अलग अलग हैं। और संस्कृत-सरीखी रूपातर-शील और पूर्ण भाषा में इनका भेद मानना सहज और उचित है।

हिंदी में कारक और विभक्ति को एक मानने की चाल कदाचित् अँगरेजी व्याकरण का फल है, क्योंकि सब से प्रथम हिंदी-व्याकरण * पादरी आदम


क्रियान्वयित्वं कारकत्वं।

  • यह एक बहुत ही छोटी पुस्तक है और इसके प्राय प्रत्येक पृष्ठ में भाषा