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साहब ने लिखा था। इस व्याकरण में "कारक" शब्द आया है; परंतु "विभक्ति" शब्द का नाम पुस्तक भर में कहीं नहीं है। दो एक लेखकों के लिखने पर भी आजतक के हिंदी-व्याकरणों में कारक और विभक्ति का अतर नहीं माना गया है। हिंदी-वैयाकरणों के विचार में इन दोनों शब्दों के अर्थ की एकता यहाँ तक स्थिर हो गई है कि व्यासजी सरीखे सस्कृत के विद्वान ने भी "भाषा-प्रभाकर" में विभक्ति के बदले "कारक" शब्द का प्रयोग किया है हाल में पं० गोविंदनारायण मिश्र ने अपने "विभक्ति-विचार" में लिखा है कि "स्वर्गीय पं० दामोदर शास्त्री ने ही, सभव है कि, सबसे पहले स्वरचित व्याकरण में कर्ता, कर्म, करण आदि कारकों के प्रयेाग का यथोचित खंडन कर प्रथमा, द्वितीया यादि विभक्ति शब्द का प्रयोग उनके बदले में करने के साथ ही इसकी युक्तियुक्त प्रतिपादन भी किया था।" इस तरह से इस बहुत ही पुरानी भूल सुधारने की ओर आजकल लेखकों को ध्यान हुआ है। अब हमें यह देखना चाहिये कि इस भूल के सुधारने से हिंदी व्याकरण को क्या लाभ हो सकता है।

हिंदी में संज्ञाओं की विभक्तियों (रूपों) की संख्या संस्कृत की अपेक्षा बहुत कम है और विकल्प से बहुधा कई एक संज्ञाओं की विभक्तियों का लोप हो जाता है। सज्ञाओं की अपेक्षा सर्वनाम के रूप हिंदी में कुछ अधिक निश्चित हैं; पर उनमें भी कई शब्दो की प्रथमा, द्वितीया और तृतीया विभक्तियाँ बहुधा दो दो कारकों में आती हैं। हिंदी-संज्ञाओं की एक एक विभक्ति कभी कभी चार चार कारकों में आती है; जैसे, मेरा हाथ दुखता है, उसने मेरा हाथ पकड़ा, नौकर के हाथ चिट्ठी भेजी गई, चिडिया हाथ न आई। इन उदाहरणों में "हाथ" सज्ञा (संस्कृत व्याकरण के अनुसार) एकही (प्रथमा) विभक्ति में है और वह क्रमशः कर्त्ता, कर्म, करण और अधिकरण कारकों में आई है। इनमें से कुर्ता की विभक्ति को छेद शेष विभक्तियों के अध्याहृत प्रत्यय वक्ता वा लेखक के इच्छानुसार व्यक्त भी किये जा सकते है; जैसे, उसने मेरे हाथ के पकडा; नौकर के हाथ से चिट्ठी भेजी गई, चिड़िया हाथ में न आई। ऐसी अवस्था में प्रायः एक ही रूप और अर्थ के शब्दों को भी प्रथमा, कभी द्वितीया, कभी तृतीया और कभी सप्तमी


का विदेशी अशुद्धियाँ पाई जाती हैं। तथापि इसमें व्याकरण के कई शुद्ध और उपयेागी नियम दिये गये हैं।

  • यह पुस्तक तारणपुर के जमींदार बाबू, रामचरणसिंह की लिखी हुई

है; परंतु इसका संशोधन स्वर्गवासी पं० अंबिकादत्त व्यास ने किया था।