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विभक्ति में मानना पड़ेगा। केवल रूप के अनुसार विभक्ति मानने से हिंदी में "प्रथमा", "द्वितीया" आदि कल्पित नाम में भी बडी गड़बड़ होगी। संस्कृत में शब्दों के रूप बहुधा निश्चित और स्थिर हैं, इसलिए जिन कारणों से उसमें कारक भैार विभक्ति का भेद मानना उचित है, उन्हीं कारणों से हिंदी में वह भेद मानना कठिन जान पड़ता है। हिंदी में अधिकांश विभक्तियों का रूप केवल अर्थं से निश्चित किया जा सकता है, क्योंकि रूपों की संख्या बहुत ही कम है, इसलिये इस भाप में विभक्तियों के सार्थक नाम कर्ता, कर्म, आदि ही उपयोगी जान पड़ते हैं।

हिंदी के जिन वैयाकरणों ने कारक और विभक्ति का अंतर हिंदी में मानने की चेष्टा की है वे भी इनका विवेचन समाधान-पूर्वक नहीं कर सके हैं। पं० केशवराम भट्ट ने अपने "हिंदी-व्याकरण" में संज्ञाओं के केवल दे। कारक—कर्त्ता और कर्म तथा पाँच रूप—पहला, दूसरा, तीसरा, आदि माने हैं। "विभक्ति" शब्द का प्रयोग उन्होंने "प्रत्यय" के अर्थ में किया है, और अपने माने हुए देने कारर्को का लक्षण इस प्रकार बताया है—"क्रिया के संबंध से संज्ञा की जो दे। विशेष अवस्थाएँ होती हैं उनके कारक कहते है।" इस लक्षण के अनुसार जिन करण, संप्रदान आदि संबंध के संस्कृत वैयाकरण "कारक" मानते हैं वे भी कारक नहीं कहे जा सकते। तब फिर इन पिछले सम्बन्धों के "कारक" के बदले और क्या कहना चाहिए? आगे चलकर "विभक्ति" शीर्षक लेख में भट्टजी संज्ञाओं के रूपों के विषय में लिखते है कि "अलग अलग पाँच ही रूप से कारक आदि संज्ञाओं की विभिन्न अवस्थाएँ पहचानी जाती है।" इसमें "आदि" शब्द से जाना जाता है कि संज्ञा की केवल दे। विशेष अवस्था का नाम कारक है और शेष अवस्थाओं के कई नाम देने की आवश्यकता ही नहीं। "हिंदी-व्याकरण" में कई नियम संस्कृत-व्याकरण के अनुसार सुत्र-रूप से देने का प्रयत्न किया गया है, इसलिए इस पुस्तक में यह बात कहीं स्पष्ट नहीं हुई है कि "अवस्था" शब्द "संबंध" के अर्थ में आया। या "रूप" के अर्थ में, और न कहीं इस बात की विवेचन किया गया है कि केवल दे। "विशेष अवस्थाएँ" ही "कारक" क्यों कहलाती हैं? कारक का जो लक्षण किया गया है वह लक्षण नहीं, किंतु वर्गीकरण को वर्णन है और उसकी वाक्य-रचना स्पष्ट नहीं है। भद्दजी ने संज्ञाओं के जो पाँच रूप माने हैं। (जिनको कभी कभी वे "विभक्ति" भी कहते हैं), उनमें से तीसरी और पाँचवी विभक्तियों की उन्होंने "लुप्त अवस्था" में आने पर उन्हीं विभक्तियो के