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अंतर्गत माना है, पर दूसरी विभक्ति को कहीं उसीमें और कहीं पहली में लिया है। हिंदी में संबोधन-कारक का रूप इन पाँचों विभक्तियों से भिन्न है; पर यह भी संस्कृत के अनुसार प्रथमा में मान लिया गया है। इसके सिवा हिंदी में षष्ठी ('हि'० व्या०" की चौथी) विभक्ति का अभाव है, क्योंकि इसके बदले तद्धित प्रत्यय का-के-की आते हैं, परंतु भट्टजी ने तद्वित-प्रत्ययांति पद के भी विभक्ति मान लिया है। साहित्याचार्य पं० रामावतार शर्मा ने "व्याकरण सार" में "विभक्ति" शब्द के उस रूपांतर के अर्थ में प्रयुक्त किया है जो कारक के प्रत्यय लगने के पूर्व संज्ञाओं में होता है। आपके मतानुसार हिंदी में केवल दो विभक्तियां हैं।

इस विवेचन का सार यही है कि हिंदी में विभक्ति और कारक का सूक्ष्म अंतर मानने में बड़ी कठिनाई है। इससे हिंदी व्याकरण की क्लिष्टता बढ़ती है और जबतक उनकी समाधान-कारक व्यवस्था न हो, तबतक केवल वाद-विवाद के लिए उन्हें व्याकरण में रखने से केाई लाभ नहीं है। इसलिए हमने "कारक" और "विभक्ति" शब्दों का प्रयेाग हिंदी-व्याकरण के अनुकूल अर्थ में किया है; और प्रथमा, द्वितीया, आदि कल्पित नामों के बदले कर्त्ता, कर्म आदि सार्थक नाम लिखे है।]

३०५—हिंदी मे आठ कारक हैं। इनके नाम, विभक्तियाँ और लक्षण नीचे दिये जाते हैं—

कारक विभक्तियाँ
(१) कर्ता ०, ने
(२) कर्म को
(३) करण से
(४) संप्रदान को
(५) अपादान से
(६) संबंध का—के—की
(७) अधिकरण में, पर
(८) संबोधन हे, अजी, अहो, अरे

(१) क्रिया से जिस वस्तु के विषय में विधान किया जाता है