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उसे सूचित करनेवाले संज्ञा के रूप को कर्ता कारक कहते हैं; जैसे, लड़का सोता है। नौकर ने दरवाजा खोला। चिट्ठी भेजी जायगी। इत्यादि।

[टी०—कर्त्ता कारक का यह लक्षण दूसरे व्याकरणों में दिये हुए लक्षण से भिन्न है। हिंदी में कारक और विभक्ति का संस्कृत-रूढ अतर न मानने के कारण इस लक्षण की आवश्यकता हुई है। इसमें केवल व्यापार के आश्रय ही का समावेश नहीं होता, किंतु स्थितिदर्शक और विकार दर्शक क्रियाओं के कर्त्ताओं का भी (जे यथार्थ में व्यापार के आश्रय नहीं है) समावेश हो सकता है। इसके सिवा सकर्मक क्रिया के कर्मवाच्य में कर्म की जे मुख्य रूप होता है। उसका भी समावेश इसे लक्षण में हो जाता है।

(२) जिस वस्तु पर क्रिया के व्यापार का फल पड़ता है उसे सूचित करनेवाले, संज्ञा के रूप को कर्म कारक कहते हैं, जैसे, "लड़का पत्थर फेकता है। "मालिक ने नौकर को बुलाया।" इत्यादि।

(३) कारण कारक संज्ञा के उस रूप को कहते हैं जिससे क्रिया के साधन का बोध होता है, जैसे "सिपाही चोर को रस्सी से बॉधता है ।" "लड़के ने हाथ से फल तोडा।" "मनुष्य आँखों से देखते हैं, कानों से सुनते हैं और बुद्धि से विचार करते हैं।" इत्यादि।

(४) जिस वस्तु के लिए कोई क्रिया की जाती है उसकी वाचक संज्ञा के रूप को संप्रदान कारक कहते हैं, जैसे, राजा ने ब्राह्मण को धन दिया।" "शुकदेव मुनि राजा परीक्षित को कथा सुनाते हैं।" "लड़का नहाने को गया है।" इत्यादि।

(५)अपादान कारक संज्ञा के उस रूप को कहते हैं जिससे क्रिया के विभाग की अवधि सूचित होती है, जैसे, "पेड़ से फल गिरा। "गंगा हिमालय से निकलती है।" इत्यादि।