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(६) संज्ञा के जिस रूप से उसकी वाच्य वस्तु का संबंध किसा दूसरी वस्तु के साथ सूचित होता है उस रूप को संबंध कारक कहते हैं; जैसे, राजा का महल, लड़के की पुस्तक, पत्थर के टुकड़े, इत्यादि। संबंध फारक का रूप संबंधी शब्द के लिंग-वचन-कारक के कारण बदलता है। (अं॰—३०६—४)

(७)सज्ञा का वह रूप जिससे क्रिया के आधार का बोध होता है अधिकरण कारक कहलाता है; जैसे, "सिंह वन में रहता है।" "बंदर पेड़ पर चढ़ रहे हैं।" इत्यादि।

(८) संज्ञा के जिस रूप से किसी को चिताना वा पुकारना सूचित होता है उसे सम्बोधन कारक कहते हैं; जैसे, हे नाथ! मेरे अपराधों को क्षमा करना।" "छिपे हो कौन से परदे में बेटा! "अरे लड़के, इधर आ।"

[सू॰—कारकों के विशेष प्रयोग और अर्थ वाक्य-विन्यास के कारक-प्रकरण में लिखे जायँगे।]

विभक्तियों की व्युत्पत्ति।

३०६—हिंदी की अधिकांश विभक्तियॉ प्राकृत के द्वारा संस्कृत से निकली हैं, परंतु इन भाषाओं के विरुद्ध हिंदी की विभक्तियाॅ दोनों वचनों में एक-रूप रहती हैं। इन विभक्तियों को कोई कोई वैयाकरण प्रत्यय नहीं मानते; किंतु संबंध-सूचक अव्ययों में गिनते हैं। विभक्तियों और संबंध-सूचक अव्ययों का साधारण अंतर पहले (अं॰-२३२-ख में) बताया गया है और आगे इसी अध्याय में (अं॰-३१४-३१५) बताया जायगा। यहाँ केवल विभक्तियों की व्युत्पत्ति के विषय में कुछ लिखा जाता है। हिंदी की विभक्तियों की व्युत्पत्ति केवल दो एक व्याकरणों में संक्षेपत: लिखी गई है; पर इसका सविस्तर विवेचन विलायती विद्वानों ने किया है। मिश्रजी ने भी अपने "विभक्ति-विचार" मैं इस विषय की योग्य समालोचना की है। तथापि हिंदी