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करण संस्कृत के "ना" (प्रा०—एण) से व्युत्पन्न मानते हैं, और उसके प्रयोग में हिदी की रचना भी प्रायः संस्कृत के अनुसार होती है। परंतु कैलाश साहब बीम्स साहब के मत के आधार पर उसे "लग्" ( संगे ) धातु के भूतकालिक कृदंत "लग्य" का अपभ्रंश मानकर यह सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं कि हिंदी की विभक्तियाँ प्रत्यय नही हैं, किंतु संज्ञाओं और दूसरे शब्द भेदों के अवशेष हैं। प्राकृत में इस विभक्ति का रूप एकवचन में 'एण' और अपभ्रंश मे 'ऐं' है।

(२) कर्म कारक—इस कारक की विभक्ति "को" है; पर बहुधा इस विभक्ति का लोप हो जाता है, और तब कर्म कारक की संज्ञा का रूप दोनों वचनो मे कर्त्ता कारक ही के समान होता है। यही "को" विभक्ति संप्रदान कारक की भी है, इसलिए ऐसा कह सकते हैं कि हिंदी में कर्म कारक का, कई निज का रूप नहीं है। इसका रूप यथार्थ में कर्म और संप्रदान कारकों में बँटा हुआ है। इस विभक्ति की व्युत्पत्ति के विषय में व्यास जी, "भाषा-प्रभाकर" मे, बीम्स साहब के मतानुसार लिखते हैं कि "कदाचित् यह स्वार्थिक "क" से निकला हो, पर सूक्ष्म संबंध इसका संस्कृत से जान पड़ता है, जैसे कक्ष = कक्खं = काखं=काहं = काहूँ = कहूँ = कहुँ = कौं = र्को = को।" इस लंबी व्युत्पत्ति का खंडन करते हुए मिश्रजी ने अपने "विभक्ति-विचार" में लिखा है कि "कात्यायन ने अपने व्याकरण में अम्हाकं पस्ससि, सब्बको, याको, अमुको,आदि उदाहरण दिये हैं। और तुम्हाम्हेन आकं', 'सब्बतो को', आदि सूत्रो से 'तुम्हाके', 'अम्हाके', 'अम्हे' आदि अनेक रूपों के सिद्ध किया है। प्राकृत के इन रूप से ही हिंदी में हमको, हमें, तुमको, तुम्हे, आदि रूप बने हैं और इनके आदर्श पर ही द्वितीया, विभक्ति चिह्न 'को' सच शब्दों के संग प्रच-